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Who feels other’s pain…

Published by Durga Prasad in category Hindi | Hindi Story | Social and Moral with tag corruption | country | Independence Day

जे पीर पराई जाने रे !.Who feels other’s pain…(This Hindi social story describes today’s political and social situation in India. After independence,moral in the people and society is disappearing.)

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Hindi Story – Who feels other’s pain
Photo credit: undefined from morguefile.com

मेरे चौपाल के पीछे एक उभरता हुआ कालोनी है – काका चौधरी कॉलोनी . पौ फटते ही रामखेलावन चाय पीने चला आया. असल में यहाँ सब जुगाड़ – पाती रहता है . केवल माचिस मारने की देर है कि चाय बनकर तैयार . सारे जहां में ओटोमेसन हो रहा तो चौपाल में क्यों नहीं ?मशीनीकरण युग सुना था वर्षों पहले , अब देख रहा हूँ वो भी साक्षात .

कुछ दिनों के लिए मेट्रो सीटी पुणे में था. पत्नी भी साथ में थी. शाम को हम पहुंचे थे . रोटी – सब्जी बननी थी. मेरी पत्नी को बैठे रहना अच्छा नहीं लगता . अपनी पतोह से बोली :

बहू ! दो मैं आटा सान (गूँथ ) देती हूँ और रोटी भी बना देती हूँ .

माँ जी ! आटा सानने और रोटी बनाने की मशीन है . आप बैठे रहिये न ! देखिये कैसे झट से रोटी – सब्जी बना देती हूँ .

मेरी पत्नी को यकीन नहीं हुआ . वह खड़ी – खड़ी गौर से देखने लगी. स्वीच ऑन , आटा सना गया . स्वीच ऑन , रोटी बन गयी . स्वीच ऑन , सब्जी बन गयी . यह सब काम अल्लाउद्दीन की जादुई चिराग की तरह फटाफट हो गया . मेरी पत्नी आँखें फाड़ – फाड़ कर सब कुछ देखती रह गयी . उसने जो देखा , उस पर उसे यकीन नहीं हो रहा था .
आपसब खाने बैठिये . बहू ने आग्रह किया .

हम फटाफट पालथी मारकर बैठ गये . देखा बहू मुस्करा रही थी यह जानकर कि हम भी मशीन से कम नहीं – फटाफट काम करने में हमारी भी कोई सानी नहीं . असल में पालथी मार कर झट से बैठ जाना भी एक कला है . इस कला में देहात वाले ज्यादा निपुण होते है , क्योंकि उनके यहाँ डायनिंग टेबुल नहीं होती , वे जमीन पर ही बैठकर खाते – पीते हैं. देहाती जीवन और शहरी जीवन के रहन – सहन में बुनियादी फर्क होता है. सुख – सुविधाएँ भी अलग – अलग होती हैं .

मैं इस बात पर पूरे विश्वास के साथ प्रकाश डाल रहा हूँ , क्योंकि दोनों तरह के जीवन जीने का अवसर मिला है मुझे . हम तो देहात में रहते हैं , लेकिन मेरे बच्चे मेट्रो सिटी में रहते हैं . कभी – कभार किसी न किसी काम से आना – जाना ही पड़ता है. ऐसी बात सिर्फ मेरे साथ नहीं है , बल्कि मेरे जैसे अनेको शख्स होंगे जो देहात में रहते हैं , लेकिन उन्हें भी शहर का चक्कर लगाना पड़ता है. सोने का वक़्त आ गया . हम जिस सोफे पर बैठे थे , पतोह आयी . हाथ के इशारे से सोफे को बेड में तब्दील कर दिया . हम देख कर दंग रह गये .सुबह उठे . उठते ही चाय दो मिनट में बनकर आ गयी .पानी – दूध , चीनी और चायपत्ती एक मशीन में डाल दी गयी . स्वीच ऑन , चाय तैयार

आते वक़्त बहू पूछी :

कुछ ले जाना है क्या , बाबू जी ?

चाय बनानेवाली मशीन .

पुणे से चाय बनाने वाली मशीन ले आया और रामखेलावन को चाय बनाने का तकनीक सीखा दिया . तब से वह एक आज्ञाकारी प्रशिक्षु की तरह सेवा कर रहा है. रोज शुबह और शाम चाय बनाकर पिलाता है .आज  जब मैंने चाय बनाने की बात कही तो झटपट दो कप चाय बनाकर ले आया .

हम चुस्की ले – ले कर पीने लगे और देश – दुनिया की खबर पर भी बातचीत करने लगे .

हम तो ताक़त में भी किसी से कम नहीं थे . तो हमें लूटकर विदेशी कैसे ले गये ?

रामखेलावन ! यही तो सोचने – समझनेवाली बात है. हम आपस में ही लड़ते रहे. इसका फायदा विदेशियों ने जम के उठाया . यही वजह है कि मुगलों ने करीब तीन सौ सालोंतक राज किया . अंग्रेजो ने भी करीब दो सौ सालोंतक राज किया. हम आपस में लड़ते रहे और वे हमें लूटते रहे . हमारी हजारों वर्षों की जमा पूंजी तो ले ही गये , हमारी उन्नत तकनीक भी लेते चले गये .

यहीं बात ख़त्म होती तो अफसोस नहीं होती. हमारे अपने लोंगो ने लुटेरों को लुटने का आमंत्रण भी दिया .

बड़ा बुरा हुआ , हुजूर !

राम खेलावन !

जी , हुजूर !

अखबार तो रोज पढ़ते हो न ?

हाँ , हुजूर !

अब क्या होता है देश में ?

शर्म आती है , बोलने में .

शर्म किस बात की ? खुल के बोलो . अभिव्यक्ति की आज़ादी है .

हुजूर ! अब अपने ही देश के लोग लूट रहें हैं .

रोज व रोज करोड़ों अरबों का वारा – न्यारा हो रहा है एक तरफ और … ?

और दूसरी तरफ जनता त्रस्त है .

किस चीज से , हुजूर !

एक रहे तब न गिनाऊँ !

गांधी जी ने राम – राज की कल्पना की थी , सब धरी की धरी रह गयी.

उलटे जनता की गाढ़ी कमाई कर के रूप में निचोड़ ली जा रही है. और उधर ?

और उधर क्या ? हुजूर !

संसद का एकमिनट का खर्च करीबन दो लाख पचास हज़ार रुपये अर्थात एक घंटे का खर्च एक करोड़ पचास लाख रुपये अर्थात आठ घंटे का खर्च बारह करोड़ रुपयेमहज वाद – विवाद में , उठा – पटक में , आरोप – प्रत्यारोप में पानी की तरह बह रहे हैं . और हम दंभ भरते हैं कि हमने आजादी के बाद हर क्षेत्र में उन्नति की है. क्या उन्नति की है , वो सभी जानते हैं , बताने की आवश्कता नहीं है.

हुजूर ! देश में चारों तरफ अत्याचार , अधर्म , अन्याय , अनीति व असत्य का बोलबाला है. अत्याचारियों एवं पापियों से कब मुक्ति मिलेगी जनता को ?

रामखेलावन ! चिंता की कोई बात नहीं है . भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सखा अर्जुन से श्रीमदभागवत गीता में इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है :
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवती भारत |
अभुत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम ||
अध्याय ४ – श्लोक संख्या ७
अर्थात हे भारत ! ( हे अर्जुन ! ) जब – जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है , तब – तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकाररूप में मैं लोगों के सामने प्रकट होता हूँ .

परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भावामि युगे युगे ||
अध्याय ४ – श्लोक संख्या ८
अर्थात साधु पुरूषों का उद्धार करने के लिए , पापकर्म करनेवालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग – युग में प्रकट हुआ करता हूँ .

इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान श्रीकृष्णशीघ्र ही प्रकट होनेवाले हैं .

इसमें भी कोई संदेह है क्या , रामखेलावन ?

राक्खेलावान ! ऊपर देखो .

वो तो महात्मा गांधी जी हैं .

वे देश की दुर्दशा को देखकर रो रहें हैं .उनकी अन्तरात्मा कलप रही है.यह सोच – सोच कर कि क्या सोचा था और क्या हो गया !

वे मर्माहत हैं इतने कि वे अपने बोझिल मन को हल्का करने के लिए अपना प्रिय भजन गा रहे हैं : वैष्णव जन तो तेने कहिये , जे पीर पराई जाने रे |पर दुखे उपकार करे तोये, मन अभिमान न आने रे ||

लेखक : दुर्गा प्रसाद , गोबिंदपुर , धनबाद , दिनांक : २ जून २०१३ , दिन : सोमबार |
***

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