आज सुबह की दौड़ लगाने फिर जल्दी उठ गया, सुबह की मीठी महक, सुबह का वो शांत वातावरण, शायद ज़िन्दगी को कुछ बातें ज़िन्दगी देती हैं और ये दोनो बातें जब भी हो तो ज़िन्दगी जन्नत ही लगती हैं ।
राधेश्यामजी वैसे उम्र से तो 74वे पायेदान पर चल रहे थे मगर ज़िन्दगी मानों 18वे पर आयी हो, हर पल नया अंदाज जीने का और वो भी बेफिक्र से, शायद तभी 74 में भी मन 18 से भी छोटा लगता था । यूँ तो हर कोई उस महफ़िल का हिस्सा बनने में कभी पीछे नहीं रहता था ओर वो जो एक बार उन 18 के मन वाले राधेश्यामजी की सुबह की महफ़िल में हिस्सा बन चुका हो। राधेश्यामजी एक बात सदा कहते थे की;
में मुस्कुराने की वजह नहीं ढूढ़ता, में ना जीने की वजह ढूढ़ता हूँ,
बस जीने मे यकीन रखता हूँ, में बस मुस्कुराने में यकीन रखता हूँ।
बस यही चार पंक्तिया थी जो आज भी राधेश्यामजी को जिवंत किये रखती हैं । आज होते तो वो 77 के होते यानी की अपनी उस जिंदादिली को देखते हुए 21 के । वो अक्सर नौजवानों को एक बात भी कहा करते थे की;
ख़्वाबों के डिब्बे को भरने दो, ख़्वाबों को हर पल उबलने दो,
और कुछ ख़्वाबों को तो बाहर निकलने दो, दुनिया भी देखे आखिर चाहते तेरी,
क्या पता कौन सा ख्व़ाब तेरे डिब्बे का, कैसा सा रंग बिखेरे इस दुनिया में,
और कुछ दीवारे तेरे ख़्वाबों के रंगों से, नयी सी होले और थोडा ओर चमकले,
ऐसे ही काश रंगों पे भी कोई “पर” लग जाए, और उड़ उड़ के फिर इस दुनिया को,
रंगी पे रंगीन करते जाए और तब यूँ ना, तेरे ख़्वाबों को रंगों की तरह उड़लना पड़ेगा
कहते की कभी-कभी चेहरे की जिंदादिली और शब्दों के चित्र आपकी असल ज़िन्दगी के दर्द को कही छुपा देते हैं, मगर उसी तरह ये बात भी अटल सत्य है की जब ज़िन्दगी चार कन्धों पर चल देती हैं तो ज़िन्दगी किताब के हर पन्ने को बड़े परदे पर चित्रित सी करती हैं और हर उस अनछुये पल को भी कहानी की मुख्य पट्कथा में एक अहम् भूमिका देती हैं । बड़ा पर्दा मतलब ये इंसानी बस्ती…
कहानी ख़त्म हो गयी है क्योकिं अब जिंदगी का सुबह 9 बजे वाला वक़्त हो गया हैं । सभी अपनी पेट की आग के लिए अब दौड़ने निकलेंगे । राधेश्यामजी बस एक किस्से की तरह जो ज़िंदगी में जब दर्द ज्यादा हो और ज़िन्दगी से मुलाक़ात कम होती हो तब एक नए रास्ते की तरह नयी रौशनी की किरण बनते हैं और तब हम उन काले बादलों (कठिन समय) से भी एक सुहाना एहसास (अनुभव) लेते थे । आप भी सोच रहे होंगे कि उन के साथ क्या हुआ, सोचते रहे क्या पता इस बहाने उनकी पंक्तिया याद आती रहे । ये आखरी दो पंक्तियाँ राधेश्यामजी की जो शायद ओर भी गुलजार करें……
बहाने मन ढूंढता हैं और मन ही बहाने बनाते है,
अक्सर यूँही ज़िंदगी की तस्वीर बनती हैं ।
….कुछ कहानी सदा अधूरी रहती हैं।
–END–
©तरुण कुमार सैनी “मृदु”