Comparisons, complexes make our life like a hell. if we can change the attitude so we can prevent our self from cancer of jealousy. Read Hindi family story with moral,
मधु की अंतिम साँसे चल रही थीं। उसका दिल्ली के एक अच्छे अस्पताल में इलाज चल रहा था। डॉक्टर के जवाब देने के बाद उसे घर वापस ले आया गया था। अब वो अपने घर पर अपने परिवार जनो के बीच में थी। सभी घरवालों, रिश्तेदारों , और मित्रजनों की आँखों में आंसू थे। क्योंकि सभी जानते थे कि अब उसका समय निकट है। सभी के हाथ बंधे थे। कोई कुछ भी नहीं कर सकता था।
इन सब के बीच भी मधु की आँखें अपनी अंतरंग सखी को ढूंढ रही थी। सखी भी कहाँ उससे दूर थी। उसका तो जैसे हृदय ही मुंह को आ रहा था मधु की हालत देखकर। कुछ ही पलों में मधु की प्रिय सखी “सुगंधा” वहां पहुंची। मधु ने अपने पति से, सुगंधा से मिलने की इच्छा व्यक्त करी।
धीरे से सुगंधा ने मधु का मस्तक सहलाया और बोली, ” हाँ , बोल मधु। कुछ कहना चाहती है मुझसे ? बता मेरी प्यारी सखी, क्या बात है? आज जो भी तुझे कहना है, सब निःसंकोच हो के कह। ” मधु ने अपना दुर्बल सर धीमे से हिलाया। मधु ने इशारा किया कि सुगंधा अपना कलम ले ले। मधु ने कहा कि जो भी वो बताये, आज सुगंधा सब कुछ पन्नों में उतार ले। मधु धीरे-धीरे बताती गई और सुगंधा तत्परता से उसे लिखती गयी।
मधु बाल्यावस्था से ही एक मेधावी छात्रा रही थी। किन्तु आदतन वो अपनी सफलता से प्रसन्न कम अपितु दूसरों की सफलता से अत्यंत ईष्या भाव रखती थी।
मधु की माँ सदैव उसकी तुलना अन्य बच्चों से करती थीं। इस कारण उसके मन में सबसे तुलना करने और स्वयं को हींन समझने की आदत पड़ गयी।
ऐसे ही धीरे-धीरे मधु बड़ी होती गयी। अपनी कमियों को दूर करने के बजाये वो निरंतर कुंठा में जीने लगी जैसे कि उसका रंग अधिक गोरा है, उसके बाल मुझसे अधिक सुंदर हैं , वो अधिक पैसेवाली है और फलां फलां …. . . . ” उसकी माँ ने कभी भी ये नहीं सोचा होगा कि वो छोटे से बच्चे के मन में कुंठा का एक बीज बो रही हैं। केवल उन्होंने उस बालमन में कुंठा का बीज ही नहीं बोया अपितु समय -समय पर उसे बढ़ावा भी दिया। युवावस्था तक पहुँचते-पहुंचते उसकी ये कुंठा अब उसकी प्रतिपल की आदत बन चुकी थी या यूँ कहिये कि कुंठा का वो नन्हा सा बीज आज परिपक्व वृछ में परिवर्तित हो चुका था।
स्नातक करने के पश्चात वो कोई नौकरी करना चाहती थी किन्तु अधिकतर मध्यमवर्गीय परिवार कन्या का विवाह शीघ्र अति शीघ्र कर अपने उत्तरदायित्वों से मुक्त होना चाहते हैं। जब उसकी कई सहेलियां नौकरी कर रही थीं तो उसे ये गहरा दुःख रहा कि वो क्यों नहीं नौकरी कर पा रही है ? कभी किसी ने उससे मित्रवत ये नहीं पूछा कि वो क्या चाहती है। नौकरी पेशा अपनी सखियों से भी उसे ईष्या हुई और उसने एक और कुंठा अपने मन में पाल ली। वो निरंतर इसी हींन भावना का शिकार हो गई कि क्या वो नौकरी करने के लिए सक्षम नहीं है।
और बिना मधु से कुछ पूछे उसका विवाह एक मधयमवर्गीय परिवार में संपन्न हो गया।
हांफने लगी मधु। सुगंधा ने उसे चुप कराया और कहा , ” बस कर मधु बस। तेरी तबियत बिगड़ जाएगी। ” मधु ने थोड़ा पानी पिया और गहरी सांस लेकर बोली ,” सुगंधा तू एक लेखिका है , तू चाहे तो मेरे जीवन से जुडी घटनाए लिख सकती है। मै बस ये चाहती हूँ कि कोई भी मानव स्वयं को मौत से पहले कभी न मारे। कोई भी कुंठा रुपी कैंसर को निमंत्रण न दे। तू लिखेगी न सुगअं … धा ?”
आँखों से बहते आंसुओं को पोंछकर सुगंधा आगे लिखने लग गई। उसने मधु से निवेदन किया कि वो थोड़ा ही बोले , विस्तार से मै स्वयं लिख लूँगी।
सुगंधा समझ रही थी कि मधु उसकी लेखनी का सहारा लेकर लोगों को जीवन में वो भूल करने से रोकना चाहती है, जो उसने स्वयं करी थी। और जिसका भुगतान वो इस विकराल बीमारी से लड़कर कर रही है। कब मन की कुंठा से कैंसर बन गया, कुछ पता ही नहीं चला।
आज उसका भी खुशहाल परिवार होता, एक भरपूर प्यार करने वाला पति और दो प्यारे-प्यारे बच्चे। ईश्वर ने अपनी तरफ से कोई कमी नहीं छोड़ी थी उसे प्रसन्नता देने में किन्तु मधु अपनी आदतों से लाचार थी। उसकी ईष्या, एवं कुंठा ने उसके मन में घर कर लिया था और सच भी है की यदि मन अस्वस्थ है तो तन अवश्य ही अस्वस्थ हो जाएगा।
मधु से विदा लेकर , सुगंधा ने सोचा कि जो भी मेरी प्यारी सखी ने बताया है, सर्वप्रथम मै उसे एक कहानी का रूप दे देती हूँ।
विवाह के उपरान्त मधु प्रसन्न रहने लगी थी। अपने सास-ससुर एवं पति का स्नेह पाकर वो स्वयं को धन्य समझ रही थी।
तभी एक दिन उसके मायके से उसकी चचेरी बहन के विवाह की सूचना आ गई। मधु के हर्ष की सीमा न रही। वो अत्यधिक प्रसन्नता से विवाह की तैयारी में जुट गई।
बड़े ही उल्लास से मधु एवं उसका पति, विवाह में पहुंचे। किन्तु विवाह के समाप्त होते-होते मधु कुछ अन्मयस्क सी हो गई। सभी लोगों ने पूछा कि क्या बात है ? किन्तु वो किसी से कुछ न कह सकी।
विवाह के पश्चात जब उसने अपनी बहन को गहनों से लदी देखा तो उसे थोड़ी जलन हुई। और उसके ऊपर जब वो अपने सजीले पति के साथ एक लम्बी सी गाडी में बैठकर विदा हुई तो मधु से रहा ही नहीं गया। मन ही मन वो ये सोच रही थी कि , ‘ काश उसका पति भी इतना ही सुंदर और सजीला होता। यदि इतने पैसेवालों के घर में मेरा विवाह होता तो कितना अच्छा होता तो मै बिलकुल रानी की तरह रहती। ‘
मधु का सारा उत्साह कपूर की भांति उड़ गया। यही ईष्या, जलन दिन पर दिन उसकी कुंठा में परिवर्तित होती जा रही थी।
मधु के पति गौरव से उसकी ये प्रवृत्ति छिपी नहीं थी। वो भी मधु को अब तक समझने लगा था। उसने अनेक बार उसे समझाने का प्रयास किया कि वो अपने जीवन से अपनी उपलब्धियों स प्रसन्न रहा करे किन्तु कुंठा की ये जड़ बड़ी ही गहरी थीं। जिसे उखाड़ फेंकना उसके बस के बाहर था।
सुगंधा बार-बार अपनी प्यारी सखी को याद कर उसके बताए हुए अनुभवों को तीव्रता से पन्नों पर उतार रही थी। वो चाहती थी कि समय रहते वो मधु को उसी की दर्द भरी भरी सच्ची कहानी सुना पाए।
ऐसी ही कई घटनाये उसके जीवन में घटित हुई। समय अपनी रफ़्तार से चलता रहता है। कुछ समय पश्चात मधु ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया। सभी परिवार जन अत्यधिक प्रसन्न थे। मधु भी मातृत्व के सुख से अभिभूत थी। आज जैसे उसे एक नया जीवन मिला था। क्या पता ये नया जीव उसके जीवन की कुंठाओं को समाप्त कर सके ?
पर जीवन में अगले मोड़ पर क्या होगा कोई नहीं जानता। मधु को पता चला कि उसकी प्रिय सखी सुगंधा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है। बस फिर क्या था। उसका स्वाभाव उसे कहाँ चैन लेने देता। अब उसे यही कुंठा हो गई कि उसे पुत्र की प्राप्ति क्यों नहीं हुई?
मधु ने जीवनपर्यन्त केवल कुंठाए ही पाली। चाहे किसी भी रूप में हो। कहते है कि किसी भी घाव का तुरंत ठीक होना अति अनिवार्य है। यदि घाव पर उचित औषधि न लगे तो वो घाव, नासूर (कैंसर) बन जाता है। मधु के मन की ईष्या, कुंठा से कैंसर में परिवर्तित हो चुकी थी। मन का रोग कब तन तक पहुँच गया, कुछ पता ही नहीं चला।
सबके समझाने पर वो प्रसन्न रहने का प्रयत्न तो करती किन्तु ईष्या, द्वेष, जलन और कुंठा से वो स्वयं को बचा नहीं पाई।
और एक दिन भीषण पेट दर्द में जब वो तड़प रही थी तो गौरव उसे अस्पताल ले आया। परिक्षण से पता चला कि उसे अंतिम स्टेज का कैंसर है। मधु जैसे संज्ञाशून्य हो गई थी। गौरव किसी तरह से स्वयं को संभाले था। उसने कहा जितना भी खर्च हो मै अपनी मधु के लिए सब कुछ करूंगा। मधु को पश्चतताप हुआ कि उसने गौरव की तुलना किसे अन्य पुरुष से की ।
सुगंधा से अब और नहीं लिखा जा रहा था। उसका जी बहुत घबरा रहा था। उसे मधु की आँखों से बहते पश्चात्ताप के वो आंसूं याद आ रहे थे। मानो रो-रोकर वो अपने भीतर के कुंठित मन को साफ़ कर रही हो। आज जब दबे पाँव मौत ने दस्तक दी तो जीवन का मूल्य समझ में आ गया । पर अब बहुत देर हो चुकी थी। समय का पहिया सदा आगे ही चलता है।
सुगंधा स्वयं को दोष दे रही थी कि ,’यदि सही समय पर मै उसे सही राह दिखा पाती तो.……संभवतः मेरी मधु……. ।’
तभी फ़ोन की घंटी से मधु के देहांत की सूचना आ गई। सुगंधा उसे, उसी की कहानी नहीं सुना पाई। फूट -फूट कर रोई सुगंधा ,” हाय रे मानव ! क्यों नहीं प्रेम में जीना सीख लेता तू। जो आया है, वो जाएगा ये तो विधि का विधान है, किन्तु यदि जीवन को सुचारू रूप से जीकर, अपने संसाररूपी कर्तव्यों को पूर्ण कर ले तो जीवन सफल बन सकता है।
जैसे तैसे वो मधु के घर पहुंची। उसका पति और बच्चे सब बिलख-बिलख कर रो रहे थे। आज मधु को किसी से कोई ईष्या नहीं थी। आज वो किसी अबोध बालिका की भांति सोई हुई थी।
मधु के घर से वापस आते समय सुगंधा ने फुटपाथ पर बैठी एक भिखारिन को देखा। वो सहज भाव से अपने बच्चों के साथ प्यार से खेल रही थी। न तो उसे अपने फटे -पुराने कपड़ों की चिंता थी और न किसी से कोई ईष्या।
सुगंधा मन न ही मन यही सोच रही थी कि जितना परमपिता ने दिया है उसे सहर्ष स्वीकार कर अपनी कमियों को सुधारें तो जीवन सुखमय हो सकता है। यदि सभी मनुष्य प्रेम और दया को सर्वोपरि रखे और दूसरों के सुख से प्रसन्न होए तो हम संभवतः कैंसर को जड़ से उखाड़ के फेंक सकते है।
***