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Pitra-Dosh

Published by Bhupinder in category Hindi | Hindi Story | Social and Moral with tag alcohol | city | police | shop | tree | village

footmarks-snow

Hindi Short Story – Pitra-Dosh
Photo credit: bendzso from morguefile.com

तिराहे की सरगर्मी आज भी पहले जैसी ही है, ….वही वर्षाशालिका , उसमे दस- बारह लोग जो बस की प्रतीक्षा कर रहे। शालिका के सामने वर्षों से खड़ी भूषण की दुकान जिसपर छोटी सी चीज़ से लेकर हर बड़ा सामान मिल जाये !

गाँव का मझोला सा परिवेश है , लगभग पक्के से हो चुके हैं घर मकान भी अब हाईवे के उस पार। दो-एक भैंस और बकरी दीख जाती है नुक्कड़ या सड़क पर एक ओर हाईवे की चौड़ी गतिजा है …अपने नाम के प्रतिष्ठानुरूप एकदम सीधी, अनत, इधर-उधर के परिदृश्य से अपरिचित और सुगतिमान।

दूसरी ओर ये एक लिंक रोड है …कच्चा सा …धूसरित , गड्ढेदार कहीं २ गोबर से सना भी। इस ओर अलग प्रतीत हो रहा है , कच्चे घर , पुती दीवारें, भूस के छप्पर भी हैं …. लगभग हर घर मे अद्भुत साम्य !

हर चाहरदीवारी के अन्दर या नजदीक पीपल के छोटे बड़े वृक्ष है शायद धार्मिक मान्यता वश लगाये गये हों। दोनों सड़कों का मिलन नैसर्गिक से राजनैतिक अधिक लगता है। लिंकरोड समर्पित , क्रीत सा मिल गया है , पर हाईवे इस परिणय से असंवेदी सा लगता है, अप्रसन्न ….. द्रुतधावी भी है जबकि लिंकरोड गंवार और अशिक्षित …

..शायद तेज़ चलने से संकुचित है।

बहराल !यहीं वर्षाशालिका में बस के प्रतीक्षालु कुछ ग्रामीण बैठे हैं। वही भूषण की वर्षों पुरानी दुकान …

..पुराने ढंग से पत्थर की चिनाई से बनी हुई , पीपल का अर्ध-पुरातन वृक्ष उसे संरक्षण दे रहा मानो।

दोपहर बाद कोई सवा चार बजे हैं।

तिराहे पर आज पुलिस का एक जवान हाथ में बन्दूक लिए खड़ा है ,कद छः फीट से कुछ कम,उम्र शायद चालीस ..चेहरे पर विरोध और अप्रसन्नता भी है।सामने जर्सी पर गुरुदत्त प्रसाद कढ़ा हुआ है। किसी गाड़ी के लिंकरोड से होकर भागने का अंदेशा हो शायद ! यह जगह चोरी चकारी करने के लिए चर्चित रहती है।

बिना स्थायी जगह के भूषण की दुकान के चबूतरे पर ही छाया पा रहा था ..वहीँ दुकान के चबूतरे की ऊँचाई से कभी खड़े २ तो कभी उकडू बैठे खैनी थूक चुका था।गाहे बगाहे परोक्ष रूप से पड़ोसी प्रांत से माल, कभी शराब तो कभी पशुओं की अवैध तस्करी इसी लिंक रोड के माध्यम से होती।

कोई पांच मील दूर इधर का अंतिम गाँव पड़ता।

दुकान के पीपल की छांह के नीचे भट्टी पर एक कारीगर दूध कढ़ा रहा है ..दुकान पर भूषण बैठा है उम्र कोई पचपन के क़रीब, धूम्र-श्याम वर्ण, तोते जैसी आगे को झुकी नाक,सफ़ेद कड़ी कुरता धोती ,बहुत घने सलेटी बालों की शिखा बनाए हुए और माथे पर पंडितों सा चन्दन -सिन्दूर मिश्र तिलक निकाले हुए।

साथ में स्टूल पर अन्दर गाँव का एक ग्रामीण भी बैठा है। उसकी कुंडली लपेटते हुए भूषण कुछ समझा रहा है ….

” भाग से ज़्यादा कर्म है सूरे ! कर्म अच्छा कर बस …. मारा-पीटा मत कर औरत को।”

“तेरा भाग है जो शुक्र देवता ने दूसरी का सुख दिया है तुझे जालिम ! पर धारक को भी तो छ्म्तावान होना चाहिए ! गाय को निछ्कारा कर !…फिरोज़ा ……”- भूषण बोलता रहा।

यह संवाद पुलिस कर्मी का ध्यान आकृष्ट करता है।

जागृत जिज्ञासा ने उसकी दृष्टि दुकान की और मोड़ दी। दुकान पर चौबारा और शायद यह बंद किवाड़ जहां पुलिस कर्मी स्वयं बैठा है कोई स्टोर अथवा गोदाम हो!

” क्यूँ पंडित जी ! ये रहन है या गोदाम ? ..बात शुरू करते हुए वो बोला।

” गोदाम कहाँ महाराज ! घर का कूड़ा कबाड़ा है …थोडा बहुत जो भंडारी दे रहा वो भी रख देते हैं।”

“पंडिताई भी करते हैं ?”- पुलिसकर्मी ने पूछा ?

” अजी बस जो थोड़ा बहुत जाना समझा है महापुरुषों के संग से वो ही बांटते हैं।पंडित कहलाने की अपनी जोगता कहाँ ?”

” कलिकाल में धर्म है कहाँ साहब ?”- नौकर को चाय के लिए इशारा करता हुआ वो बोला।

नौकर ने लाकर स्टूल दिया और पुलिसकर्मी उसपर बैठ गया।

” अब इसी सूर सिंह का पत्रा देख लो !” – बाहर बैठे ग्रामीण की ओर इशारे से वो बोला।

” शुक्र मंगल से दृष्ट है और इसे ऐब की ओर ले गया। मैंने बहुत समझाया है इसे कि सरकारी मुलाजिम को सौ दिसा देख के चलना पड़ता है। दूसरी का प्रपंच इतना सरल नहीं ….”

उसके हाथ से अख़बार में लिपटी कोई बोतलनुमा चीज़ पकड़कर सूर सिंह चलने को हुआ। सकपकाए से भाव से बकाया पकड़ा।

” देखियो मेरी रिजक को पाप न लगाइयो … कम पीयो संतोष से।”- एक नज़र से पुलिसकर्मी को निहारकर वो बोला।

तबतक वो भी चाय के दो घूँट भर चूका था और प्रश्न मुद्रा में भूषण की ओर देख रहा था। दृष्टि में और भरे हुए चाय के घूँट में तथापि अधिकारिता की और ताड़ लेने की झलक न थी। बंद कागज़ में शायद पहचाना न हो।

भूषण पर संकुचित न था,बोला- ” चोरी नहीं करता भूषण, चाहे परले गाँव तक में पूछ लियो! जहाँ से ये जहर मिली आ रही है ना …” -हाथ का इशारा लिंक रोड की तरफ करता हुआ वो बोला।

“जो पार के सरकारी दुकान वाले से न बिकी वो तक मुझे दे जाते हैं ; बीस साल की कच्ची उमर से ही लोग विस्वास करते हैं कि भूषण की दुकान से जो पी ली है वह स्वर्ग विलास जैसी है।”

“आप मुझे इत्ती सी बता दो सरकार ! जब इलाके में पक्की की दुकान खुलेगी नहीं तो कच्ची वाले तो चांदी काटेंगे ही।”- आगे झुकता हुआ धीमे परन्तु गहरे स्वर में भूषण बोला।

गुरुदत्त की चाय ख़त्म हो चुकी थी। गिलास नीचे रखकर वो मुखातिब हुआ-” आपके पास लाइसेंस थोड़े ही है शराब बेचने का ..या ले रखा है ?”

“ग़लत चीज़ है ये आप कानूनन ये नहीं कर सकते मालूम है ना?”-

” कितना माल है ऐसा अभी ?”- खड़ा होकर वो काउंटर तक पहुंचा।

” तो साहब जी! उनका जहरीली बेचने का लाइसेंस बना है क्या ?”- भूषण स्थिर था। अन्दर की ओर जाते हुए भूषण बोला।

अन्दर मालघर का किवाड़ खोल कर दिखाता है। एक पेटी थी वहां जिसमे छोटी-बड़ी चौदह कच्ची की शीशियाँ पड़ी थीं।

बाहर निकलते हुए बोला – “मैं तो युग अनुसार आचरण वाला आदमी हूँ सरकार,लोग न पीयेंगे तो न बेचूंगा पत्रा बांचकर भी रिजक पैदा कर दे भूषण “- स्वर और ऊंचा हो गया उसका।

“……..रही बात क़ानून की तो महाराज! इस गाँव को बचपन से देख रहा हूँ यहाँ कानून इतना जोरदार नहीं है।

सिपाही भी मालघर से बाहर निकल चुका था और नथुनों पर तनाव लिए उसे घूर रहा था।

“नीति और धरम है लोगों में थोड़ा बहुत जिससे सत्ता कायम है।”- भूषण कतई विचलित न था।

ये बात सिपाही को उद्वेलित कर रही थी।

” ऐसे -कैसे टुच्ची बातें करके और माथे पर तिलक लगा के हमे कह रहा है कानून नहीं है!”- सोच रहा था वो। ग़रीब-मार न करता पर इतनी अकड़ तो उसे चुनौती पेश कर रही थी न ….फिर भी खुद को सहज करना चाहा। गुरुदत्त चिंतन में पड़ गया था और मोबाइल पर कुछ नंबर टटोल रहा था शायद।

संभले हुए शब्दों में बोला- ” जो यहाँ से तस्करी हो रही है वो तभी हो रही है जब आप जैसे ज़िम्मेवार लोग ऐसा कर रहे हैं।”

“शराब बनाने या बेचने के लिए सरकार ने लाइसेंस दिए हैं और लोगों को चाहिए कि ………”

“”लोगों की भी सुन लो साहिब ! ये सामने का चमन , पीली दीवार वाला घर ….”- उंगली से दिखाकर भूषण बोला।
“इसके तीन अगला घर ….संपूरन और पिछली बस्ती में तो बच्चे-कच्चे तक निकाल 2 के बेच रहे हैं।”

गुरुदत्त अवाक् देख रहा था।

“शराब निकालने का काम इतना सरल थोड़ा है ! कई बार जहर बन जाता है।”

“परके साल 3 लोग जो अंधे हुए थे ..न ! …स्कूल जाने वाले एक लड़के ने बनायीं थी वो।” -गुरुदत्त स्तब्ध था परन्तु स्थिर।

तभी अन्दर गाँव से लंगड़ाता ,मैला सा दिखता एक आदमी दुकान के चबूतरे की सीढ़ी पर आकर रुका। उसके आने से पहले उसकी लम्बी सी परछाई दुकान के सामने सड़क पर पहुँच चुकी थी जिसे भूषण पहचानने की चेष्टा कर रहा था।  रंग-बेरंग की कोटनुमा मोटी कमीज़ पहने था, बढ़ी हुई सफ़ेद होती दाढ़ी और अन्दर को पिचका सा मुंह ….

भूषण उसकी और मुखातिब हुआ।

गुरुदत्त बाहर चबूतरे पे आ गया और चिंतन कर रहा है कि -“ऐसा एक गाँव पूरा का पूरा इस इलाके में है और हम लोग कुछ भी नहीं कर रहे।”

“भूषण जैसे लोग जो अवैध शराब बेचकर दुकान चला रहे हैं हमे कानून सिखाएंगे?…….जानता नहीं वर्दी ने बड़े 2 रौब नाबूत कर दिए फिर इसका और इसकी दुकान का क्या वजूद?….’लेकिन अभी इसके पास बोतलें भी इतनी नहीं कि ज़मानत न हो पाए। इसे तो रेड करके पकड़ा जाये जब केस कंपाउंड न हो सके।”

“ह्म्म्म ” वो पीछे मुड़ा और भूषण की वार्ता में सम्मिलित हो लिया।

” इसके पच्चीस रुपों से ज़्यादा नहीं लगेंगे भैया! “-भूषण एक पीतल की छोटी पतीली हो हवा में ऊपर-नीचे करके वज़न तौल रहा था।

“देख ले !”- हथेली भूषण की ओर करके वो पसीजती सी भंगिमा बना रहा था। शायद इस बर्तन को बेच रहा था।

एक हाथ मैली पतलून नुमा वस्त्र की जेब से निकालकर मसला हुआ सा दस का नोट भूषण की और बढाया उसने।

भूषण ने भी हाथ में लेकर तरतीब से उसे गल्ले में संभाल दिया।

गुरुदत्त भी जानता था शायद , सौदे के प्रत्यक्ष व अंतिम क्षण समझ कर वो उलटी दिशा में घूम गया।

नीचे चबूतरे की आखिरी सीढ़ी पर बैठकर वो बूढा अधिया खोलने लगा।

“ऐ! हप्प! स्साला !”- बन्दूक कंधे पर खींचकर हाथ उठा कर गुरुदत्त बोला -“मरवाएगा !”

” जा घर चला जा “- बीच में भूषण बोला।

सुनकर अधिया उस पतलून सी की जेब में घुसेड़ कर वो आक्रांत सा ऊपर चबूतरे पर खड़े गुरुदत्त और भूषण को नीची आँखों से तकने लगा।

इतनी लताड़ शायद पर्याप्त न थी उठकर चले जाने के लिए या शायद पुनः उन दोनों के प्रतिवाद की प्रतीक्षा कर रहा हो पलायन करने से पूर्व।

” …दैव भी बड़ी चीज़ होती है ..”- गुरुदत्त को देखते हुए भूषण बोला।

” अच्छी -खासी जमीन खेती थी रसूख की।”- थोड़ा धीमें से स्वर में ठोड़ी बूढ़े की ओर चिन्हित करते वो बोला।

“हम्म! “- प्रश्नवश गुरुदत्त ने हुंकार सी की।

” बस्स ! दोष के वश सब चला गया ..औरत छोड़ गयी,बच्चे थे नहीं,भाई -भावज ने अलग कर दिया था।”- काउंटर पर झाड़न करते हुए वो बोला।

“इसमें दोष क्या है?”-गुरुदत्त ने पूछा।

“कोई पुरखा मरा है इनका बेगति का …जिसकी कोई संतान न हो, गति नहीं होती उसकी।”- भूषण बोलता रहा।

“उसका प्रेत कुनबे को बसने नहीं देता …..न औलाद होए न तरक्की , शादी ब्याह भी नहीं ….नशा पत्ता लग जाता है।”-भूषण बोल रहा था और गुरुदत्त सुनता जा रहा था।

तभी धीमी सी गति से एक बड़ी सी चमचमाती सफ़ेद गाड़ी मुड़ी और भूषण के चबूतरे के आगे पड़ाव डाला दिया। शायद अन्दर गाँव की ओर जा रही थी।
“हप्प ,हप्प !”- हाथ उठाकर गुरुदत्त ने बूढ़े को भगाया।

तभी गाड़ी का शीशा नीचे हुआ।
” भैया बच्चे के डाईपर मिलेंगे ?”- गाड़ी में बैठी एक नव्या सुंदरी ने पूछा। मरून रंग का परिधान था सौर उस से अधिक पीताभ सोने की चमक थी।

हाथ में एक पैकेट उठाये ऊपर काउंटर से ही भूषण ने दिखाया – ” ये वाला है मैडम जी!”

चालक सीट से एक पुरुष उतरा जो निश्चित ही उस युवती का पति था। लम्बा क़द , गौर वर्ण और सुनहरी बालों की कक्षायें जो स्वतः निर्दिष्ट सी चेहरे से झूलती और एक लय सी उत्पन्न कर रही थी।

गुरुदत्त चकित अनुमान कर रहा था। वो भी हेड क्वार्टरज़ में रहा था और ऊंचे रैंक के सब साहब , कमिश्नर और सचिव लोग आदि लोग देखे थे।
काले तले वाले और जगमगाते चमचम गाड़ी से ही सफेद जूते पहने था वो। धात्विक सलेटी ट्राउज़र्स और कोट अंदर सफ़ेद कमीज़ और गहरा हरा स्कार्फ़।
ट्राउज़र्स की मूरी भी जाने किस ढब से सजी थी ,वापस टखनों की ओर एक बट पलट के सिली हुई और परालौकिक सी शालीनता से उन श्वेत चर्म युग्मों को चुम्बन कर रही थी!

“पता नहीं कहाँ से मिल गया होगा ये परिधान इन्हें मैंने तो नहीं देखे शहर के भी किसी मॉल पर !”- मनानुमान किया उसने।

बूढ़े के किनारे से होकर वो आदमी बढ़ता चबूतरे की सीढियां चढ़ने लगा।

उसके जूते चमक चमक कर कोई इंद्रजाल रच रहे थे।

“शायद इस क्षण इन जूतों से अधिक शोभन दूर 2 तक कुछ भी न था इस तिराहे पर।” यही सोचकर गुरुदत्त ने चबूतरे की ऊंचाई से दूर 2 तक निहारा …

…..पर शायद अपने अंतस-वाक्य सा प्रबल कोई तथ्य न खोज पाया।

ऊपर आते ही उस व्यक्ति ने भूषण के हाथ से वो डाईपर का पैकेट लिया और ऊंचा दिखाते हुए गाड़ी में बैठी अपनी पत्नी की और दिखाया। अनुमोदन पाकर बोला- ” दे दीजिये ! ”

एक नज़र दुकान को निहारकर बोला- ” म्मम्म ! ऐसा कीजिये पानी की दो बोट्लज़ और ये प्लेन वाले दो चिप्स के पैकेट भी दे देना।”

जेब से पांच सौ का नोट भूषण को पकड़ाकर पूछने लगा – ” खुले तो होंगे न ?”

” जब दुकान खोल ही दी है तो खुले भी रखने पड़ेंगे सर !” -विदूषक तान में भूषण बोला।

काउंटर से डाईपर और पानी की बोतलें उठाकर वो गाड़ी की ओर ले गया। भूषण पैसे तलाश रहा था।

उतरते समय उस बूढ़े को ठहरी सी नज़र से देखा उस विसृष्ट ने। वापस आकर भूषण से चिप्स के पैकेट लिए और बूढ़े के नज़दीक आकर कुछ धीमा सा हुआ।धीरे से उससे आगे निकल कर वापस उस की ओर मुंह किया और काँछ से एक चिप्स का पैकेट उसकी ओर बढ़ाते हुए इशारा किया। बूढ़े के अभिशप्त मंडल पर शायद पहली बार मुस्कान आने को हुई और जबतक यह दुर्लभ घटना घटती ,वो दाता पुरुष बूढ़े को अनुगृहित कर गाड़ी की ओर मुड़ चुका था।

भूषण कारीगर का बनाया खोया जांच रहा था बाहर पीपल के नीचे। गुरुदत्त भी अलग दिशा में मुंह कर के खड़ा हो गया। जेब से मोबाइल निकाल कर बात करने लगा। बातचीत के दौरान पता लगा कि शाम को सात सवा सात बजे तक इंतज़ार करना है, फिर यदि आवश्यक हुआ तो रुकना पड़ेगा गश्त पार्टी के साथ अन्यथा सात बजे तक ही फ़ारिग हो जाएंगे।

मुड़कर भूषण से पूछने लगा – ” शाम को इस तरफ बसें कब तक हैं?”

भूषण बोला – बसें ही बसें हैं साहब! हाईवे पे तो कोई कमी नहीं बसों की , बस हमारी सड़क पर इनका टोटा रहता है।”

गुरुदत्त कुछ आश्वस्त हुआ और मन को हल्का करने का प्रयास करने लगा।

“एक चाय बना दीजियेगा”- पांच रुपये का सिक्का काउंटर पर रखकर बोला।

” आप कबतक रुकेंगे सरकार?”- कढ़ाई पर काम में लगा भूषण बिना देखे ही पूछने लगा?

गुरुदत्त ने बताना मुनासिब न समझा शायद …बोला – ” हमारा तो काम यही है जहाँ ग़लत हो वहीं रात गुजारनी पड़ती है।” फिर घड़ी देखते हुए बोला- देखता हूँ शाम तक !”

भूषण काउंटर पर आया और पांच रूपये देख कर उठाये और तेज़ी से मुड़कर गुरुदत्त के नजदीक पहुंचा- ” आप तो शर्मिंदा कर रहे हो सरकार!”

“आप मेहमान हो मेरे आज , ऐसे थोड़े ही ! …रमेस ! दूध में पत्ती डाल दे एक !”- उसने कारीगर से कहा।

फिर कुछ सोचकर बाहर आया और चबूतरे से आने जाने वालों को निहारता रहा। गुरुदत्त भी किसी मंथन में गुंथा सा बैठा रहा स्टूल पर। इसी बीच भूषण ने 2-3 ग्राहकों को निपटाया और बाहर जाते लोगों को निहारता रहा। गुरुदत्त भी चाय पी चुका था। तभी एक माल ढ़ोने वाली गाड़ी को इशारा करके रुकवाया और नीचे जाकर कुछ कहा।

वापस आकर बोला- ” आज मेरे मेहमान रहेंगे सरकार ?”

नहीं -नहीं! पर अगर ज़रूरत पड़े तो कोई होटल वगैरह है यहाँ ?”- गुरुदत्त ने पूछा।

“हाँ है तो सड़क पर उधर …..”

” तो इधेर नयी ड्यूटी लगी होगी ?”- भूषण ने दरयाफ्त किया।

” हाँ मैं दरअसल हेड क्वार्टरज़ में रहा अब तक तमाम ” अभी बीस बाईस दिन हुए आया हूँ , बहुत सख्त माहौल है ऊपर तो !” – शायद भूषण को प्रभावित करना चाहा उसने।

…..इसी तरह बातचीत में घंटा भर गुज़र गया।

गुरुदत्त बाहर बैठा आने जाने वाली गाड़ियों को निहारता रहा ..और एक दो चक्कर नीचे सड़क तक भी हो आया। खैनी बनायीं ,जेब में पड़ी दो सिगरेट भी पी जा चुकी थी। मन अस्थिर था निर्णय चाहता , ” यदि मुजरिम की औकात कानून से क्षमता पूछने की हो तो क्या फायदा …?”

” और फिर रुआब भी तो कम नहीं , माना छोटा है पर अपराध तो है न !”- सोच रहा था गुरुदत्त। तभी वर्शाशालिका में सोया पड़ा वह बूढ़ा रसूख दिखाई दिया जिसके पास में ही चिप्स के पैकेट का खोल और खाली अधिया पड़ा था। अब कोई यात्री न था शालिका में। थमकर गुरुदत्त ने देखा। मैदानी इलाका है और दूर तक हाईवे पर जगमग लाइटों का चमकारा है। इस ओर देखता है तो अंधियारे के बीच यत्र-तत्र बिजली के बल्ब धंसे थे। लोगबाग़ सो गये थे शायद या खा-पीकर सोने की तयारी में हों!.इसी बीच भूषण की पूजा की घंटी की ध्वनि सुनाई दी। गुरुदत्त टहल कर फिर काउन्टर की ओर आया। भूषण अपने हिसाब-किताब में लगा है।

” आइये साहब ! बैठिये! “-भूषण ने बेंच की ओर इशारा किया।

इसी बीच वही गाड़ी वाला आया जिससे भूषण मिलने गया था।

” अबे! बड़ी जल्दी पहुंचा!”- देखते ही भूषण बोला।

उसने पॉलिथीन का लिफाफा काउंटर पर रखा और बोला- ” एक सौ तीस ”

भूषण ने बिना प्रत्युत्तर के गल्ले से एक सौ तीस रूपये निकाल कर मुस्कुराते हुए उसे थमा दिए। किनारे पर बने रैक से बीड़ी का बंडल निकाल कर वो भूषण से बतियाने लगा। फिर अपना कम्बल ओढ़ कर रामराम कह के चलता बना।

भूषण ने कारीगर को आवाज़ लगायी और बुलाया- ” फटाफट दो सौ ग्राम मटर तल दे …”

“गुस्ताखी माफ़ हुज़ूर शाम हो आई है संध्या बंदन हो गया आप कहें तो खाने के लिए ऊपर कहलवा दूं ?”- गुरुदत्त से वो बोला।

” नहीं खाने का पक्का नहीं है शायद मैं निकलूंगा बस घंटा भर और देखता हूँ “- गुरुदत्त घड़ी देखकर बोला।

पांच मिनट में रमेश मैदे के मटर तल लाया प्लेट में। भूषण उठा और पॉलिथीन के लिफाफे से अंग्रेजी का अधिया निकाला।

“साहब ! मैं तो कच्ची ही पी लेता हूँ ,ये आज आप के लिए स्पेशल मंगवाई है।”

“आइये !” वो काउंटर के पीछे से दो गिलास उठाकर अन्दर किनारे पर लगे बेंच पर रखने लगा।

” नहीं मैं नहीं लूँगा आप लीजिये !”- गुरुदत्त संकोच से कहने लगा।

” सरकार ब्राह्मण हो कर शुक्र प्रसाद को मना करते हैं?”- भूषण एक गिलास हाथ में पकड़े सर हिला के पूछने लगा।

गुरुदत्त स्तब्ध था- ” कैसे जाना आपने मैं ब्राह्मण हूँ?”

“हाहा हा ! “- भूषण छोटे स्टूल को खींच कर बीच में ले आया – ” महापुरुषों ने जो दिया है उसी की खाता हूँ , हाथ में आपने जो हीरा पहना है और साथ वाली ऊँगली में जो माणिक है न इन्ही से पहचान लिया। भूषण ऐसे ही थोड़े दुकान लगाये बैठा है?” – उसके स्वर में फिर आत्मश्लाघा गूंजने लगी थी । अधिया खोलकर पानी के साथ उसने दो जाम बनाये। गिलास में ऊँगली डुबो कर बाहर छींटे उछालता है।

गुरुदत्त भरे ग्लास को देखता है , कुछ सोच कर उठा लेता है।

” क़द काठ से चेहरे की बनावट से, उठी हुई नासों से भी जान लेते हैं।”- भूषण ने मटर की प्लेट आगे बढ़ाते हुए कहा।

दो लम्बे से घूँट खींच कर गुरुदत्त बोला – ” तुम क्या ये समझते हो कि इन तर्कों से कानूनन ग़लत किया हुआ काम भी सही सिद्ध हो जाता है?”

भूषण का ध्यान पूरा मटर की प्लेट पर था और वो अबतक एक पैग ले चुका था।

” क्या ये वर्दी इतनी कमज़ोर है कि आप जैसे कच्ची निकालने वाले भाई खुले घूम लें?”- उँगलियों से छाती के पास से ख़ाकी  जर्सी खींच कर और सर को परिक्रमा में घुमाकर वो बोला।

भूषण नए पैग बना चुका था।

” नहीं 2 मैं क्या और क्या मेरी मजाल ? “- दोनों हाथ जोड़कर भूषण का शीश नत हुआ तो गुरुदत्त को संतोष सा अनुभव हुआ।

फ़ौरन बात बदली – ” अरे यार ! इतना हमे भी दिखता है क्या सही है क्या गलत ”

“बिलकुल”- भूषण ने हामी भरी।

भूषण और ग्लास भरने को हुआ तो गुरुदत्त ने रोका-” बस बस लाला जी ! ”

भूषण ये उपमान पाकर गदगद हो गया था।

” आप अतिथि हैं और सरकारी आदमी …और तो और ब्राह्मण भी ! हीहीही !”

“बुरा न मानो तो दिल की एक कह दूं ?”- भूषण ने आँख मिला कर पूछा।

घूँट निगलकर वो बोला- ” मैं तो छोटा सा था जभी से देख रहा हूँ “” ये दशा जो है … न कानून के रोके की है न सरकार की”- हथेली से गुरुदत्त की जांघ सहलाता भूषण बोल उठा-” बारह का हूँगा मैं जब घर से भाग गया था। ”

” तब भी यही पीपल का पेड़ था घर की चाहर दीवारी में धंसा , बाप शराब पीता था बेहद ……दिन और रात , माँ घर से चली गयी थी। पर मेरा बाप ऐसा नहीं कि बच्चों को न देखे “- भूषण ने शायद श्रेणी इतर करनी चाही।

” मेरा स्वभाव हट गया था पर संसार से,चला गया जोगी संग को। उस साल चार जन सन्यासी हो गये थे यहाँ से।”- अधिये में बची थोड़ी सी शराब कारीगर के हाथ में देकर वो बोला।

कारीगर भी अपना कढाह अन्दर लगा चुका था। शायद दुकान बंद होने वाली थी।

“फिर ?”- गुरुदत्त ने पूछा।

“वहां घर 2 जाता और महात्माओं के लिए भिच्छा मांगकर लाता। पहाड़ों पर रहे कभी मशान में। ऐसे ही विद्या सीखी उन सिद्ध जनों से “- कान छूकर बोला।

” फिर क्या साहब ! यहाँ का अन्न-जल ले आया, पिता चला गया .. छोटे भाईयों को देखने मुझे वापस आना पड़ा।”- भूषण मार्मिक सा नज़र आया।

“माया ऐसे कहाँ कटती है ?” – आह फेंकता हुआ वो बोला।

” मैंने प्रण ले लिया कि इस भूमि का दलिद्र मुझ पर असर नहीं करेगा , इसी पीपल के नीचे महात्माओं से पूजा-पिंड, धुआं-चिमटा सब करवाया। जो पितृ अधोगति को गये थे उनकी शांति करवाई …और लग के मेहनत की। कोदा, जौ, अन्न, संतरा, ध्रुबल़ी हर चीज़ से बनायीं है और सफाई से काम करके पिलाई है भूषण ने। गन्ने के समय शीरा खरीदता उधर गाँव से। इस पीठ पर माट भर भर के खुद लाता था। पर गंद नहीं बेचा ,चार पैसे कम ही कमाए होंगे लेकिन नाम नीचा नहीं होने दिया “- ऊँगली नचाकर बोला भूषण।

“अपनी विद्या से जो जाना वैसे ही पूजा करम धरम सब किया भूषण ने …..ये गाँव निःकुलों का है साहब! मेरे तो संस्कार खरे होंगे जो गुरुसंग मिला। यहाँ की धरा पर तो पीपल ही उपजते हैं और हर कुनबे के कई कई पितर रहते हैं उसपर।”- भूषण प्रवाह में था।

” मतलब?”- गुरुदत्त ने दुकान बंद करते कारीगर को देख बेंच छोड़ा।

पर वार्ता पूरी न हुई थी अभी।
“मतलब यही कि पता नहीं कब से इस भूमि पर निःकुल लोग ही रहते आये हैं।.. इनके पत्रे -कुंडली पाप प्रभाव में हैं … शनि या केतु बैठे हैं लग्न में ,कुटुंब में। इनकी फितरत तभी अपराध की है,नशा, चिलम,चोरी और तमाम ….सूर्य विपरीत है और आयुष अल्प। ग़रीबी , अपाहजी , नशा , बेमीयादी मौत इनके प्रारब्ध में लिखी है …और बेमौत मरेंगे तो पितृ दोष होगा शास्त्र भी कहता है। नतीजा ये होगा कि घरों में पीपल उग आएँगे जिनपर पितृ रहें और बिना मुक्ति के इनको त्रास देंगे। यहाँ दूर-दूर तक पीपल और बड़ ही लगे हैं।” -बाहर आते हुए भूषण बोला।

“ये लोग कब कानून को मानेंगे? जब घर में खाना को न होगा और सारा गाँव नशा  ढूंढेगा तो शराब तो बनेगी ही न साहब!”

अँधियारा तिराहे के अन्य सब दृश्यों को लील चुका था। चबूतरे के ऊपर खड़े वो दोनों चबूतरे के किनारे पर बढ़ आये। गाँव के बल्बों के छिन्न भिन्न प्रकाश में तिराहे के नजदीक की पीपलियाँ दीख रही थीं।

” आप लोग एक अच्छा नेता क्यूँ नहीं चुनते ? उससे कहिये कि गाँव में रोज़गार मुहैय्या करवाए , स्कूल और बाक़ी सब अच्छे से चलवायें।”- गुरुदत्त ने सुझाया।

” बस साहब ! करम के लेख हैं सब!”- भूषण को अधिक रूचि न थी।.

सामने हाईवे पर एक से एक गाड़ियां बिना शोर बहती जा रहीं थीं। घाटी के मैदान के पार शहर रोशनियों से जगमगा रहा था और यहाँ अदद बस सेवा भी नहीं।

” उधर देखा है कभी साहब ! आपने ? आक ही आक उगे पड़े हैं ……सूर्य के झाड़  “- हाईवे पार शहर की ओर इशारा करते हुए भूषण बोला।

” वो सूर्य का क्षेत्र है तमाम कुलीन लोग रहते हैं जहाँ ;..जहाँ सूर्य होगा वहाँ कुलोच्च सम्प्रदाय रहेंगे ही। प्रशासक, कानून के मानने वाले लोग और कानून चलाने वाले भी … जो रथ सी सुन्दर गाड़ियों में घूमा करेंगे ..” अंग्रेजी का असर पाकर भूषण की भाषा उन्नत हो गयी।

तभी गुरुदत्त की ओर मुड़कर ऊँगली उठा वो याद दिलाने को हुआ- ” जैसी गाड़ी दिन में आई थी न ऐसी ही …” गुरुदत्त को दिन का स्मरण हो आया।

” उनको न भूख है न बीमारी, स्वर्ग भी कुलीनों का  और अपवर्ग भी उनका ही, न कोई बात अज्ञात रह गयी है उनसे …. न मरा होगा कोई अकाल मृत्यु उनके घर !”- भूषण अपने आख्यान में खो गया था।

कारीगर दुकान बंद कर चाबी भूषण को दे गया।

गुरुदत्त स्तब्ध खड़ा था मंत्रबद्ध सा मानो। फ़ोन आया कि आज रात गश्त नहीं होगी और वापस वो आ जाये! गुरुदत्त चलने को हुआ।

भूषण हाथ जोड़कर और झुक कर गुरुदत्त से बोला- ” साहब जी ! मेरी मजाल तो नहीं पर आज गरीब का आतिथ्य स्वीकारते तो!”

“बहुत शुक्रिया ! फिर मुलाक़ात होगी ..”- एक हाथ से भूषण की छद्म झप्पी भर और क्षमादान सूचक मुस्कान दे वो चबूतरे से नीचे उतर आया।

भूषण ऊपर चौबारे में चला गया। वर्षा शालिका में रसूख अब भी सोया पड़ा था। गुरुदत्त जाकर पार खड़ा हो गया इक्कीसवीं सदी के इस हाईवे पर जो निर्बाध दौड़ रहा है, निर्दोष और पितृ दोष से अजान। मन गुत्थित है विमूढ भी। सोच रहा है ऐसे कितने ही रसूख होंगे गाँव के जो घर के बर्तन बेच कर कच्ची पक्की शराब पीकर भूखे पेट सो गए होंगे ! ऐसे कितने ही पीपल के पेड़ वाले घर हैं यहाँ ,जिनके शनि और केतु जाने कितने युगों से कितने ही सूर्यों के चमकने से भी ध्वस्त न हुए !

या कितना कुत्सित है यह पितृदोष जो दशकों से आज तक चमक रहे सत्ता-सूर्यों के प्रभाव को भी निष्प्रभ कर रहा है ! तभी तो आज कितने वर्षों बाद भी हाईवे के नजदीक खड़ा ये गाँव पितृ दोष से युक्त है।

…तभी एक बस आई और तिराहे पर रुकी।

गुरुदत्त भी उसी में चढ़ गया ..खिड़की के साथ बैठा वो जगमग शहर को देख पा रहा था जो उसका गंतव्य था।

मन में भूषण का चित्र स्पष्ट था ..ऐसे अनगिनत लोग हैं आज जो दो जून रोटी या उससे अधिक पाने के लिए गैर कानूनी काम कर रहे हैं …
….भूषण ने तो पितृ दोष ढूंढ और पिंड दान करके अपना पापशमन कर लिया …पर गाँव के अन्य पीपल कैसे प्रेत मुक्त होंगे , कब उनके यायावर पितृ सद्गति पाएँगे ?” ऐसी तमाम बातें उसके अंतर्मन में चल रही थीं .

बस की गति तेज़ थी और गुरुदत्त भी जल्दी घर पहुंचना चाहता था।बस कुछ देर में शहर के नज़दीक पहुँच गयी।

बस के प्रकाश में सड़क के दोनों ओर लगे आक के झाड़ दिख रहे थे। गुरुदत्त को आज ये आक के झाड बहुत संतुष्ट कर रहे थे। अंग्रेजी का नशा अब आँखों को मूंदना चाहता था मानो।

…और गुरुदत्त तुष्ट था कि वह आक के झाड़ों के पास रहता है पीपलियों  के गाँव से बहुत दूर।

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