धूर्त सड़के: When he look back in his city-he saw ..river flowing with a culture ,but when he came back in present,it was replaced by still roads,
वह फिर उसी शहर में लौट आया था.आज फिर वही शहर था। वही लोग थे। और वहीं के वहीं वो पत्थर रखा हुआ था -जिसे वह पांच वर्ष पूर्व एक पेड़ के नीचे यह सोच कर छोड़ गया था कि जिससे वह ये देख सके कि क्या उसके इस शहर में उस जैसा कोई जागा हुआ इंसान भी रहता है ?… जो इस पत्थर को हटाकर वहां एक सुन्दर किताब रख देगा …
पर ऐसा नहीं हुआ था। बल्कि हुआ यह था कि शहर भर के सभी पेड़ो के नीचे पत्थर ही पत्थर रख दिये गए थे। शहर के इस निर्जिव मिजाज को देखकर उसकी ऑंखें भी पथराने लगी थी। उसे आज तक यह बात समझ में नहीं आयी थी कि यह मनुष्य दिमाग से सोचता है कि आँखों से ?… क्योँकि वह वर्षों से यह देखता आया था कि लोग देखा-देखी ही विवाह कर रहे थे। प्रेम कर रहे थे। दोस्ती कर रहे थे। दुश्मनी कर रहे थे … और यहाँ तक की पृथ्वी पर लोग देखा-देखी ही में मर भी रहे थे … यहाँ धरती पर कोई भी मनुष्य जीने का प्रयास नहीं कर रहा था।निचिकेता की तरह यमराज से यह यक्ष प्रश्न नहीं पूछ रहा था … कि मौत इस अजर -अमर आत्मा का दैहिक स्वभाव कैसे हो सकता है ?
सभी न जाने किन धूर्त समझौतों के तहत माताओं के गर्भ में आ रहे थे …. और देर-सवेर रात के अंधियारों में माताओं के पेट से जन्म नहीं ले रहे थे बल्कि गर्भाशयों में से छलांग लगाकर अस्पतालों के बिस्तरों पर टहल रहे थे ….
वह वर्षों से यह देख रहा था कि घरों में बच्चे एक आवारा जवानी में बड़े हो रहे थे। बूढ़े हो रहे थे। और लगातार एक अधजली लाश की तरह अपने जवान माँ-बाप की आँखों के सामने ही एक बद्तमीज मौत मर भी रहे थे।
वह देख रहा था … कि उसके इस प्यारे शहर में अब उसे उसका नाम लेकर अपने पास कोई नहीं बुलाता था … बस सभी एक-दूसरे को मोबाइल पर आवाजें दे रहे थे। शिकायतें कर रहे थे। झगड़ रहे थे … और शादी कर रहे थे। उसने 21 वी सदी के इस मनुष्य को इस तरह एक-दूसरे से इतना दूर जाते पहली बार देखा था।
वह वर्षों से यह देख रहा था कि बूढ़े माँ-बाप अपने ही घरों में ,अपने ही शादी-शुदा बच्चों की आँखों के सामने …. गुमशुदा हो रहे थे। घरों में इतनी सन्नाटों भरी भीड़ हो गयी थी कि पति-पत्नी भी अपने ही घर के आँगन में एक-दूसरे को बिना बात किये क्रॉस कर जाते थे …. और फिर बिना बात किए ऑफिस चले जाते थे। 21 वीं सदी के इन बाजारू घरों में इतना ज्यादा ट्रैफिक देख कर वह अचम्भित हुआ जाता था।
एक दिन उसने यह जानना चाहा कि आखिर इतना पतन मानव का हो क्योँ रहा है ?वो कौन लोग हैं …जो ऐसा कर रहे हैं … वे कौन से कारण हैं -जिसके परिणामस्वरूप घरों में लगातार नयी-नयी शादियों का ABORTION हो रहा है ….?
यह सोचते-सोचते वह नदी किनारे पहुँच गया। उसने आंसुओं से भरी अपनी आँखों को नदी के किनारों पर दौड़ा दिया … उसने देखा कि दूर-दूर तक एक विधवा सन्नाटा किनारों पर पसरा हुआ था। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। क्योँकि वह यह तथ्य अच्छी तरह जानता था कि मानव इतिहास की सभी सभ्यताएं नदियों के किनारों पर पैदा हुई थी। पली और जवान हुई थी। नदियों के ये किनारे ही थे -जिन्होंने हमें यह बताया था कि हमारे होँठ ही बांसुरी हैं। इनसे शब्दों को जब गुनगुनाया जाता है -तब वे शब्द ही एक मधुर गीत बनकर धरा को हरा-भरा करते हैं।
ये नदियां ही थी -जिनके किनारों पर टहलते हुए हमारी उज्जवल परम्परा में कई महामानवों ने आत्मबोध पाया था … इन नदियों का पानी पीकर ही हम जैसे आज भी अपमान का घूंट पी जाते हैं …
आज इसी नदी के किनारे टहलते हुए वह सोच रहा था कि नदियों के ये महान किनारे विधुर कब हो गए … कैसे हो गए ?किसने यहाँ लगने वाले लोकमांगलिक किनारों को यहाँ से खदेड़ दिया था …यह सोचते -सोचते वह नदी के पास बनी सड़क पर आ पहुंचा था। उसने देखा की … किस तरह इस राष्ट्रीय राजमार्ग पर यातायात सभ्यता के नव-विकास का भंवर गुंजन बन रहा था। दूर-दूर तक सड़कों का मकड़जाल पूरे शहर में फैल गयाथा। सड़क किनारों के प्रकाश-बल्ब रात में सूर्य बनकर शहरों को रोशन कर रहे थे।
वह टहलते-टहलते बहुत दूर निकल आया था। अचानक एक जगह वह ठिठक कर रुक गया ! वह यह अब जान चूका था कि अब मानव सभ्यताएं नदियों के किनारे नहीं पनपती बल्कि सड़कों के किनारे जन्म लेती हैं …
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–रविदत्त मोहता