This story is dedicated to all unsung heroes who quietly sacrifice their lives to protect their country & its people.
१९ अक्टूबर २००८ – आज पूरा शहर मेहरा साहेब की बेटी की तरह ही एक दम दुल्हन की तरह सज़ा हुआ था . और फिर हो भी क्यूँ ना , भई आखिर मेहरा जी शहर के जाने माने और प्रसिद्ध चिकित्सक जो थे . और फिर अनन्या उनकी लाडली बेटी जो है . शहर के साथ साथ पंडाल और मंडप की सजावट भी ऐसी थी की आँखें बस खुली की खुली रह जायें . मेहमानों की गपशप , बच्चों की चहलकदमी और अल्हड़ बालाओं की हंसी से सारा माहौल महक रहा था .
सब मस्ती में झूम रहे थे की तभी अनन्या की दादी जी की आवाज़ गूँजी ” अरे इंदु (अनन्या की माँ ) कहाँ है तू ? बारात निकल चुकी है यहाँ आने के लिये. जमाई बाबू की आरती उतारने के लिए थाल तैयार किया की नहीं ? ”
सासू माँ की आवाज़ सुनते ही श्रीमती इंदु मेहरा दौड़ती हुई आयीं और बोलीं की मम्मी जी आप चिंता ना करें . सब कुछ तैयार है . पंडितजी भी आ चुके हैं .
“और अनन्या ?” , यह आवाज़ थी अनन्या के बड़े भाई अंश की .
“वो ऊपर है अपने कमरे मे . पार्लर से कुछ लड़कियां आई हैं उसे तैयार करने के लिये”, यह मधुर आवाज़ थी अंश की पत्नी निधि कि. और सच में ही निधि मेहरा के पास रूप रंग का खज़ाना था .
तभी अनन्या की ताई जी तेज़ी से अन्दर आयीं और बोलीं की “चल इंदु आरती वाला थाल लेकर जल्दी से बहार चल मेरे साथ . बारात आ गयी है”. बस अगले ही दो मिनट में मेहरा साहब , श्रीमती इंदु मेहरा , अंश और निधि के साथ कुछ और ख़ास रिश्तेदार दरवाज़े पर खड़े थे दुल्हे अंगद और बाकि सब बारातियों का स्वागत करने के लिए . पूरे सम्मान के साथ दुल्हे समेत बारातियों को अन्दर पंडाल में ले जाया गया . वधु पक्ष मेहमानों की आव-भगत में लग गया . थोड़ी ही देर में मेहरा साहब की भतीजी राशी ने आकर धीरे से इंदु जी के कान में कहा की ” चाची जी पंडित जी अंगद जीजू और अनन्या दीदी को बुला रहे हैं ताकि जय माला की रस्म शुरू की जा सके “. अपनी सासु माँ का इशारा पाकर निधि ऊपर वाले कमरे की और दौड़ गयी .
कमरे का दरवाज़ा खुलते ही मुसीबतों ने मेहरा परिवार को अपने कब्जे में ले लिया . दरवाज़ा खोलते ही निधि की चीख निकल गई . कमरे के अन्दर का मंज़र था ही इतना हृदयविदारक . पार्लर से जो लड़कियां अनन्या को तैयार करने आई थीं उन सबके लहू लुहान शव ज़मीन पर कुछ इस तरह पड़े थे जैसे की कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध लड़ा गया हो. चीख सुनते ही सब ऊपर की तरफ भागे. और निधि की तरह अगले कुछ पलों के लिए सब जड़वत हो गए . फिर भी हिम्मत करके अंश कमरे मे घुसा और अब जो रहस्य खुला वो दिल दहलाने वाला था . अनन्या का कहीं कोई नामोनिशां नहीं था . और जिस बात ने सबसे ज्यादा चौंकाया वो यह थी की मरने वालों में सब लड़कियां नहीं थी . दो शव पुरुषों के थे जो की सलवार कमीज़ ही पहने हुए थे और तीसरा शव एक लड़की का था
सब के मनोमतिष्क में एक ही सवाल था की यह सब क्या हुआ है और अनन्या कहाँ है . पूरे घर में अफरातफरी सी मच गई . हर कोई अनन्या को ही ढूँढ रहा था . अंगद और बाकि बाराती भी अनन्या को ढूँढने में लग गए . बहुत समय बीत जाने के बाद भी जब अनन्या का कुछ पता नहीं चला तब बड़े भारी मन से मेहरा साहब ने अंगद , उसके परिवार और सब बारातियों से माफ़ी मांग कर उनको विदा किया . मेहरा साहब और अंश ने घर के पास वाले पुलिस थाने में अनन्या के गायब होने की शिकायत दर्ज करवायी . मेहरा साहब अच्छे रसूख वाले आदमी थे इसलिए खुद सीनियर इंस्पेक्टर दिवाकर बोरा और पुलिस कमिश्नर अमरीश लाल ने उनको पूरा आश्वासन दिया वो जल्द ही अनन्या को ढूंढ निकालेंगे .
मेहरा साहब के घर से मिले तीनों शवों की शिनाख्त का काम तेज़ी से शुरू हो गया . चालीस दिन तक यह काम चलता रहा और आखिरकार पुलिस की मेहनत रंग लायी . पर जो हकीक़त सामने आई उसके लिए शायद कोई तैयार नहीं था . वो तीनों शव जिन लोगों के थे वे सब एक खतरनाक आतंकवादी संगठन का हिस्सा थे . और यहाँ से शुरू हुआ मेहरा परिवार का कठिनतम समय.
कभी पुलिस वाले मेहरा परिवार के घर पर होते थे और कभी पूरा परिवार पुलिस थाने में . अखबार और टीवी पर तरह तरह की खबरें आने लगी . पड़ोसियों ने भी तरह तरह की अटकलें लगानी शुरू कर दी थी . अगर यूँ कहें की समाज और पुलिस मेहरा परिवार को दबी ज़बान से देशद्रोही घोषित कर चुके थे तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी और इस सब में अनन्या कहाँ गायब थी कुछ पता नहीं था .
१५ जनवरी २००९ – महीनों अपमान झेलने के बाद आज रात ९ बजे एक सफ़ेद रंग की गाड़ी मेहरा साहब के घर पर आकर रुकी और उसमे में से जो लोग निकले वो अगले दस मिनट में मेहरा साहब और अंश को अपने साथ लेकर चले गये. इधर इंदु जी और निधि परेशानियों के नए भंवर में खो गयीं .
आधे घंटे बाद वो सफ़ेद गाड़ी शमशान घाट पर जाकर रूकी . अंश और मेहरा साहब के मन सवालों से भरे हुए थे की आखिर यह सब क्या हो रहा है. कुछ कदम चलने के बाद उनको रुकने के लिए कहा गया . और तभी मेहरा साहब के हाथ में जलती हुई मशाल दे दी गई और कहा गया की सामने पड़ी चिता पर लेटी हुई अनन्या को मुखाग्नि दे .मेहरा साहब और अंश का दिल मानों जोर जोर से चीख रहा हो की अनु यह तुम नहीं हो सकती . क्यूँ तुम इन लकड़ियों पर शांत लेटी हो ? अनु खड़ी हो जाओ और हमारे गले से लग जाओ . पर अनु तो कब की मौत के आगोश में जा चुकी थी और फिर मुर्दे कहाँ बातें करते हैं .आँखों में आँसू का सैलाब लिए मेहरा साहब ने अपनी लाडली अनु की चिता को अग्नि दे दी .
२३ जुलाई २०१३ – आज मेहरा परिवार अनन्या की यादों के साथ शिमला आ बसा है . सब कुछ ठीक ही चल रहा है बस नहीं है तो अनन्या हाँ पर दीवार पर टंगी हुई उसकी मुस्कुराती हुई तस्वीर यह ज़रूर कहती है की ,
“मौत ने हमें फनाह किया तो क्या ,
ज़िन्दगी ने हमें दगा दिया तो क्या ,
हकीक़त है की आपके दिल में
हमारी यादों के दिया जलता है आज भी”
आखिर क्या थी और कौन थी अनन्या ? क्या हुआ था जिसकी कीमत उसने अपनी जान देकर चुकाई ? क्या वो कोई देशद्रोही थी ? क्या हुआ था उस रात ? कितने सवाल थे और जवाब किसके पास थे – अनन्या के पास , या उन लोगों के पास जो उस रात उस सफ़ेद गाड़ी में आये थे ? क्या मेहरा साहब और अंश इन सवालों के जवाबों से वाकिफ थे ?