अपने गृह स्थान से प्रस्थान करते समय नये शहर उदयपुर सीटी पर्यटन करने की नयी उत्सुकता मन में थी। मै रेलगाड़ी में दूसरे दर्जे श्रेणी के डब्बे में अपनी निर्धारित सीट पर बैठी। सामने वाली सीट पर बुजुर्ग दम्पति बैठे। बुजुर्ग दम्पति बैठते ही मुझसे बात -चीत करनी चाही। मैंने मुस्कुराते हुए उनका अभिवादन स्वीकार किया। अनुकूलता देखते हुए मैंने उनसे औपचरिक वार्तालाप किये ,जैसे -अंकल -आंटी आप कहाँ जा रहे हो? समय बीतता जा रहा था। बीच -बीच में चाय वाले ,स्नेक्स वाले ,कोल्ड्रिंक्स वाले ,खाने का आर्डर लेने वाले अपनी मौजूदगी का एहसास करा जाते।
दोनों दम्पति ने बातचीत के दौरान बताया की अपने बेटे और बहु के पास बहुत लम्बे अंतराल के बाद उनसे मिलने उदयपुर जा रहें हैं। उन्हें देखकर मुझे अपने माँ -पापा की याद आ गयी। रह -रहकर उनके मोबाइल से कॉल आ रहे थे। जहाँ तक मै समझ पाई। वो सारे कॉल उनके बेटे और बेटी के आ रहे थे। जिसमे पूछे जा रहे प्रश्न थे। आप कहाँ पहुँचे?आपने खाना खा लिया ?आपने अपनी दवाई समय पर ली ?आपकी ट्रैन समय पर चल रही है ?आप चिंता ना करें। हमलोग समय से आपको लेने स्टेशन आ जायेंगे।
थोड़ी देर बाद वो अपना भोजन समाप्त करने के बाद ,अपनी कुछ दवाई ली। उसके बाद दोनों सोने की कोशिश करने लगे। थोड़ी देर बाद दोनों नींद की आगोश चले गए। रह -रहकर दोनों की खर्राटे की आवाजे आ रही थी।
मुझे नींद कहाँ आने वाले थी। एक सामने से आ रहे खर्राटों की वजह से ,दूसरी नए शहर को जानने -समझने की उत्सुकता। मै अपनी खिड़की से बाहर के मनोरम दृश्यों का आनंद लेने लगी। नीला गगन ,बादलों से आती सूर्य की लाल किरणे ,बादलों के बीच कलरव करते पंछियों के झुण्ड ,ऊँचे -ऊँचे पहाड़ ,मंदिर मे बजती हुई घंटियों की मधुर आवाजें ,कहीं दूर खेतों में गाओं से दूर बने झोपड़े ,कहीं -कहीं रेलवे लाइनों के किनारे खड़े लोग ट्रेन को कोतुहल की दृस्टि से एक टक निहारते नजर आते ,कहीं दूर मैदानों में चरती नीलगाय ,भेड़ ,बकरियाँ के झुण्ड दिख जातें ,कहीं खेत पर कार्य करता किसान दिखता। खेतों की रखवाली के लिए बीच बने आदमी के आकर के काठ पुतले।
जब बीच -बीच में स्टॉपेज आते तो मै गाड़ी से उतरकर स्टेशन पर जगह -जगह लगे फलों के स्टॉल उसपर करीने से सजी पपीते ,अमरुद ,जामुन ,सेब , संतरे ,नाशपाती लोगों की उन स्टॉल्स से कुछ न कुछ खरीदने की जल्दवाजी दिख जाती। कहीं आलू ,पूरी के स्टॉल्स पर लम्बी कतारें ,कहीं गरमा -गरम समोसे ,आलू बड़े ,भजिये तले जा रहे हैं। जिसे देख किसी के मुंह में पानी आ जाये। सभी स्टॉल्स पर पहले मुझे -पहले मुझे की होड़ मची है। जैसे ही गाड़ी खुलती है सारे शोर -शरवा बंद स्टेशन फिर से सन्नाटा ,इक्का -दुक्का चहल कदमी करते नजर आ जातें हैं।
इन्हीं यादगार लम्हों को अपने जेहन में कैद करने की कोशिश में कब घडी ने सुबह के पांच बजा दिए। पता ही न चला। हमारी मंजिल उदयपुर सिटी सामने बाहें फैलाए हमारा स्वागत कर रही थी। स्टेशन एकदम साफ -सुथरा नजर आ रहा था। मैंने अपने सामने वाली सीट पर बैठे बुजुर्ग दम्पति से फिर मिलने के वादे के साथ विदाई ली। वेटिंग हॉल में मैंने थोड़ी देर ठहरने का निर्णय लिया। सुबह के छः बजते ही मैंने होटल के लिए टैक्सी बुक कर ,अपने होटल के लिए प्रस्थान किया। होटल में कमरे मैंने पहले से ऑनलाइन बुकिंग कर रखी थी। इसलिए कमरें मिलने में कोई तकलीफ नहीं हुई।
होटल के कमरें में जातें ही रहत की सांस ली। कमरे में फ्रेश होने के बाद मैंने अपना मन पसंद नास्ता किया। बिछावन पर जाते ही कब मै गहरी नींद की आगोश में चली गयी कुछ पता ही न चला। शाम के वक्त मैंने आस -पास के बाजारों का रुख किया। मंद-मंद चलती पवन शरीर में स्फूर्ति का एहसास रही थी। शाम के समय सड़कों पर आने -जाने वालों की भीड़ कुछ ज्यादा थी। मैंने टहलने के दौरान बाहर ही स्थानीय वयंजन का लुत्फ़ उठाया। कमरे मे वापस आकर मैंने थोड़ी देर किताबें पढ़ीं। फिर देर रात सो गयी।
रोजाना तड़के सुबह उठकर मै उदयपुर सिटी के लोगों की संस्कृतिओं को समझने की कोशिश करती। वहाँ की महिलाएँ सुबह चार बजे नहा -धोकर अपनी पारम्परिक परिधान जैसे लहंगा -चुन्नी और गहनों से लदी मंदिर में सुबह के समय पूजा -पाठ करतीं। पूजा करने के दौरान महिलाएं पारम्परिक गीत गातीं। उसके बाद घर की महिलाएं गृह के दैनिक कार्यों में व्यस्त और पुरुष दिन की शुरुआत चौराहे पर पंछिओं को दाना डालते ,उनके लिए पिने के लिए पानी की वयवसथा करते। गायों को हरा चारा डालते। उसके बाद पों -पों की आवाज करती गाड़ी से दूध वाला हर घर में दूध देकर चला जाता। हर घर में कई पीढ़ियों के लोग साथ -मिलजुलकर रहते दिखे। उनलोगों का ओरो के प्रति सहयोगात्मक वयवहार और सरल था। अगली सुबह मैंने टैक्सी वाले को बुलाकर शहर के दर्शनीय स्थलों के बारे में पूछा तो उसने बताया सिटी पैलेस ,पिछौला झील ,फ़तेह सागर झील ,सहेलियों की बाड़ी ,झील महल,रोप वे ,मॉनसून महल आदि।
मैंने बोला -देखो एक -दो दिनों में मै कितना घूम पातीं हूँ। उसने उन दो दिनों के दौरान मै सिटी पैलेस गयी। जहाँ आस -पास बगीचे ,झीलें ,नौकायन का मजा लेते लोग ,स्टॉल्स लगी लोगो की भीड़ ,फोटो ग्राफर के साथ यहां के पारम्परिक परिधानों में फोटो खिचवाते लोग , सिटी पैलेस देख ऐसा लग रहा था की मै रजवाड़ों की दुनिया का मै हिस्सा बन गयी। बड़ी- बड़ी ,ऊँचे ऊँचे महल उसके बाहर की ओर खुलते झरोखे ,बड़ी -बड़ी अट्टालिकाएं ,दरवाजें की भवय कलकीर्तियां ,कहीं रथ ,क्या -क्या मैं बयान करूँ वो देखने पर ही अनुभव किया जा सकता है। हमे बताया गया की अक्सर यहाँ फिल्मों की शूटिंग होते रहती है। उसकी थोड़ी दूर पर बने करनी माता के मंदिर मै रोप वे गयी। उहा से पूरा शहर साफ -साफ दिख रहा था।
आगे मै अगली जगह गयी। जहाँ कठपुतली डांस देखा। उसके बाद सहेलियों की बाड़ी देखा। जिसमे अनगिनत फूलों की किस्में थी। अगला पड़ाव पिछौला झील यहां झील देखा। उदयपुर झीलों का शहर है। यहाँ बहुत मात्रा में विदेशी पर्यटक घूमने आतें है। मैंने अंत में कुछ कपड़े ख़रीदे ,कुछ रजाईयां ली। होटल के कमरें आकर मैंने अपने मन कहा- मुझे जब भी कभी मौका मिला। अगली बार फिर मै यहाँ आउंगी।
इस बार के लिए इतनी यादें सहेज मै कल की ट्रैन से अपने घर वापस आने वाली थी।
###