सिंहगड ,पुणे – एक सुखद ऐतिहासिक यात्रा (Sinhagad, Pune – A Historic Journey): Hindi Travel experience from Pune to Sinhagad & nearby places to visit. Trip to historical Singhgarh fort & story of victory of Great Maratha Shivaji
रामखेलावन को कहाँ से पता चल गया कि मैं पुणे का प्रोग्राम बना रहा हूँ . फिर क्या था मेरे पीछे हाथ धोकर पड गया .
हुजूर ! इसबार मुझे भी आप के साथ चलना है पुणे .
तो नहीं मानोगे ?
सवाल ही पैदा नहीं होता.
मेरी कुछ कमजोर कड़ी है , जो रामखेलावन को मालूम है , इसलिए मैं उससे डरता रहता हूँ. बहस नहीं करता . जानता हूँ , बहस करने से उधेड़ कर रख देगा . इसलिए मैंने ‘ हाँ ’ कर दी.
जनवरी का महीना था . कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी . टिकट कटा कर ले आया . आज़ाद हिन्द एक्सप्रेस स्लीपर क्लास का .
हुजूर ! दिमाग खराब हुआ है क्या ?
चार महीने पहले ही टिकट आरक्षित करवाया जा सकता है , ऐसा प्रावधान है. अप्रील में चलेंगे और अप्रील में ही लौट जायेंगे .
हुजूर ! इतना पहले ही रुपये लूटा के चले आये , बुधिमानी नहीं की . हफ्ताभर पहले कटवा लेते .
यहाँ एक अकेले हम नहीं हैं , हजारो लोग जानेवालें हैं . सिर्फ खिड़की ( Window ) खुलने की देर है , फिर टिकट फुर्र हो जाती है , देखते ही देखते . वो दोहा नहीं सुना क्या ?
कौन सा दोहा , हुजूर ! तनिक हम भी सुने .
‘कल करे सो आज कर , आज करे सो अब ,
पल में परलय होयेगी , बहुरी करोगे कब | ’
समझ गया .
खाक समझे ? रेल विभाग को करोड़ों रूपये अग्रिम ही आ जाते हैं इस प्रकार . किसी से दस रूपये अग्रीम मांग कर तो देखो , क्या कोमेंट करता है वह !
न बाबा न , हम अग्रिम नहीं देंगे , पहले काम , फिर दाम . और यहाँ तो हल्दी लगे न फिटकिरी , रंग चोखा,ऊपर से इंसेंटिव भी .
वो कैसे , हुजूर ?
वो ऐसे कि आरक्षित टिकट , अगर आप किसी वजह से कैंसल करवा दिए , तो उसका चार्जेज अलग से देना होगा. इसे बोलचाल की भाषा ( अंगरेजी ) में कैंसेलेसन चार्जेज कहते हैं .
हिन्दी में ?
अब हिन्दी कहाँ ? देख नहीं रहे हो अंगरेजी की दीवानगी , सभी लोग अपने बच्चे – बचियों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में दाखिला के लिए एड़ी – चोटी का पसीना एक कर रहें हैं . पुणे की जगह ‘ घूर – पेंच ’ कर रहें हैं , अभी चुनाव आया भी नहीं , नेता की तरह समझाने – बुझाने लगे , वो भी अनर्गल . आजकल उल्टी – सीधी बात करने का चलन हो गया है . मजा आता है इससे . पा जी संसद में बिपक्ष को रिझाने के लिए शेरो – शायरी करते हैं. मजा आता …..
हुजूर ! चार महीने कटेगा कैसे ?
चौपाल में खाली जमीन है , गेहूं लगा दो , इधर गेहूं तैयार , उधर हम तैयार .
सरकारी जमीन है , हुजूर !
तो क्या हुआ ? हमारे देश में ऐसी जमीन कितने लोगों ने अपने नाम में बन्दोवस्ती करवा ली. कल- कारखाने बनाये , फ़ार्म हाऊस खोला , सुपर मार्किट बनवाए , बहुमंजली ईमारतें खडी कर दी . कुछ तो ऐसे दबंग निकले कि औने – पौने दाम पर रेवड़ी की तरह बाँट दिए .
कोई कुछ ?
कुछ नहीं . गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में सैकड़ों साल पहले लिख कर गये हैं , नहीं मालुम ?
नहीं , हुजूर !
तो मालूम कर लो : समरथ के नहीं दोष गोसाईं .
अर्थात ?
जो सामर्थवान हैं ,वे कुछ भी , चाहे लीगल हो या इलीगल करे , कोई दोष नहीं है . भाई , रामखेलावन ! जम के खेती करो . चालीस साल से रह रहे हो . चुनाव के पहले अपने नाम में बन्दोवस्ती करवा लो. सर्व भूमि गोपाल की . थोडा सा प्रसाद स्वरुप ले लिया तो कौन सा … होनेवाला है.
रामखेलावन समझता है , लेकिन थोड़ी देर से .
रामखेलावन वैसा ही किया जैसा मैंने सुझाव दिया था . गेहूं लगा दिया वो भी के अडसठ – उम्दा किस्म का वक़्त जाते देर नहीं लगती . चार महीने बीत गये . गेहूँ काट कर एक कमरे में रखकर बंद कर दिया . शुभ मुहूर्त ,दिन देखकर हम पुणे आज़ाद हिन्द से निकल गये .
सेकण्ड क्लास स्लीपर की टिकट थी . हम समय पर पुणे पहुँच गये . हम अतिथि गृह में ठहर गये जहाँ सभी सुविधाएँ उपलब्ध थीं. पहला दिन : सबसे पहले आलंदी में साईं बाबा का दर्शन किये . यह स्थान पुणे से दस –बारह किलोमीटर पर शांत वातावरण में अवस्थित है. आरती हो रही थी . श्रधालुयों और भक्तों की भीड़ हजारों में थी ,लेकिन हडबडी किसी में नहीं थी. सबूरी और श्रधा – बाबा के दो अनमोल वचन के सभी कायल थे. रामखेलावन देख कर दंग रह गया. हम भी पंक्ती में खड़े हो गये हाथ जोड़कर . एक घंटा में हमारा नंबर आया. हमने साईँ बाबा का दर्शन पूरी श्रधा एवं भक्ति से की . रामखेलावन भी हाथ जोड़कर बाबा से कुछ मांगने में संकोच नहीं किया . अगल – बगल दूसरे कई भव्य मंदिर थे . महाराष्ट्र में सभी जगह गणेश जी के मंदिर अवश्य मिलते हैं . यहाँ गणेश जी का दर्शन हमने किया. प्रसाद दोने में वितरित किया जा रहा था . हमने प्रसाद ग्रहण किया . हम घूमते-फिरते रात के नौ बजे अतिथि गृह लौट आये.
दूसरा दिन : दूसरे दिन ओशो का दर्शन करवाने ले गये. वहां हमने भक्तों से मुलाक़ात की और इस आश्रम के बारे में जानकारी ली. यह एक विशाल ध्यान एवं योग का आश्रम है. यह गोरेगाँव , पुणे में ही अवस्थित है. इसकी स्थापना ओशो आचार्य रजनीश की इक्कसवीं वर्षगाठ १९७४ में हुयी . आचार्य रजनीश का मूल नाम चन्द्र मोहन जैन था. इनका जन्म ग्यारह दिसंबर १९३१ में एक व्यापारी के घर जब्बलपुर में हुआ था. सात वर्ष की उम्र से इनको कष्टों का सामना करना पड़ा जब इनके दादाजी , दादीजी एवं इनके गर्लफ्रेंड की असामयिक मृत्यु हो गयी . ये बचपन से ही कुशाग्र वुधि के थे . इन्होंने दर्शन शास्त्र में स्नातकोत्तर परीक्षा १९६० में सागर विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण की. वे जब्बलपुर विश्व विद्यालय में प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए . वे सर्व धर्म सम्मलेन से जुड़े हुए थे . देश के कोने – कोने में घूम – घूम कर अपने विचारों से लोगों को रूबरू करवाए. इन्होंने सैकड़ों पुस्तकें लिखीं , लेकिन इनकी पुस्तक ‘ सम्भोग से समाधी तक ’ काफी लोकप्रिय हुयी. इनका देहावसान महज ५८ साल की उम्र में १९ जनवरी १९९० को पुणे आश्रम में हो गया . इनके पंथ का नाम ओशोधारा के नाम से प्रसिद्ध है . आश्रम का कार्य इनके अनुवायियों द्वारा चलाया जाता है. शुबह ६ बजे से नियमितरुप से बुध हाल के विशाल सभागार में ध्यान ( Meditation ) का प्रोग्राम रहता है. ८ बजे से ओशो एक – डेढ़ घंटे का प्रवचन अपने शिष्यों को देते हैं.
हमने भी ध्यान एवं प्रवचन एवं प्रार्थना में हिस्सा लिया . हमें बड़ा ही आत्मीय आनंद की अनूभूति हुयी. हम आचार्य रजनीश के दो किताबें खरीदीं और गेस्ट हाउस लौट आये. तीसरा दिन : तीसरा दिन हमने यरवदा जेल जाकर महात्मा गांधी जी की काल कोठरी, कस्तूरबा एवं महादेव देसाई की समाधी देखने निकल पड़े. जहाँ महात्मा गांधी को रखा गया था , उस प्रकोष्ठ को हमने देखा . वे जो – जो सामान दैनिक जीवन में व्यवहार करते थे , सब ज्यों के त्यों रखे हुए थे हमारे दर्शनार्थ व अवलोकनार्थ. यहाँ जेल के अन्दर दो समाधियाँ बनी हुईं थीं – एक कस्तूरबा मोहनदास गांधी की और दूसरी महादेव देसाई की. देहावसान कारावास की अवधि में ही दोनों का आज़ादी मिलने के पहले ही हो गया था . महादेव देसाई का देहांत १५ अगस्त १९४२ को जबकि बा का २२ फरवरी १९४४ को . गांधी जी उस वक़्त जेल में ही थे . बा ने अंतिम सांस गांधी जी की बाँहों में ही ली थी. रामखेलावन ये सब देखकर भावुकता में बह गया .
बोला , ‘ कितनी दुखद बात है कि आज़ादी भी नहीं देख पाए और चले गये दोनों , जो बापू के अतिसय प्रिय थे . कितने मर्माहत हुए होंगे बापू उनकी असमय मृत्यु पर ?
बापू ने तबतक गीता का पूरे मनोयोग से अध्ययन , मनन एवं चिंतन कर लिया था . उनकी मनोदशा स्थितप्रज्ञ जैसी हो गयी थी.
स्थितप्रज्ञ क्या होता है ?
जब सुख में – दुःख में – दोनों अवस्थाओं में मनुष्य का भाव एक समान रहता है , ऐसे मनुष्य को स्थितप्रज्ञ कहते हैं . रामखेलावन एक बार श्रीमद भागवत गीता पढ़ कर देखो .
वही पुस्तक , जिसे पढ़कर बापू ( महात्मा गांधी जी ) ने हमें आज़ादी दिलाई .
वो भी बिना खून – खराबा के . वो लोकप्रिय गाना नहीं सुना :
दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल ,
साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल |
इ गनवा तो खूब बजता था , जब भी गांधी जयंती , गणतंत्र दिवस , स्वतंत्रता दिवस आते थे .
अब भी बजता है , लेकिन सुनते कितने लोग हैं ?इसीलिये कहता हूँ गीता पढो , गीता . ज्ञान – विज्ञान की बातों से रूबरू तो हो ही जाओगे , साथ ही साथ मानसिक सुख व शान्ति भी मिलेगी .
संस्कृत में गीता है . और संस्कृत मुझे नहीं आती .
प्रत्येक दोहा के नीचे हिन्दी में सब्दार्थ दिए रहते हैं , ऐसा गुटका खरीदो .या …
या , क्या ? हुजूर !
मेरे पास है , यहाँ नहीं , चौपाल में . लौटते ही ले लेना , भूलना मत
चौथा दिन : सिंहगड जाने का प्रोग्राम था . हमें शुबह ही निकलना था . हम जल्द ही खा – पीकर सो गये .
चार बजे का अलार्म लगा दिया था ताकि वक़्त रहते जग जाय . एलार्म बजने लगा . हमने विस्तर छोड़ दिया . स्नान – ध्यान करने के पश्च्यात चाय – बिस्किट खा ली. गाड़ी आ गयी थी .
पुणे से सिंघगड तल ( Base ) तीस किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है . मगरपट्टा ( साईबर सीटी ) से होते हुए हम सिंहगड कीले की तलहटी तक पहुँच गये . समय डेढ़ घंटे लगे . फिर स्वरगेट ( Swargate ) से सिंहगड सड़क पकड़ ली. सड़क खडकवासला डैम से होकर गुजरती है. प्रकृति की छठा देखते ही बनती थी . चारों तरफ हरियाली ही हरियाली . गुलमोहर के लाल- पीले फूलों ने तो हमारा मन ही मोह लिया .
सिंहगड की सड़क काफी चढ़ाई से गुजरती है . सिंहगड समुद्र तल से ७०० मीटर ऊँचाई पर स्थित है. हमारा ड्राईवर काफी होशियार था . जहाँ भी टर्निंग आती थी , गाड़ी स्लो कर देता था या रोक देता था , जब कोई सामने से आती हुई गाडी मालूम पड़ती थी. हमने पहले ही बतला दिया था कि सावधानी से चलाना , भले ही हम देर से ही क्यों न पहुंचे . ‘ सावधानी हटी , दुर्घटना घटी ’ इस बात का ख्याल रखना . पैसे की चिंता मत करना . जो तुम्हारी उचित मजदूरी होगी , हम देंगे .
रामखेलावन ये सब देखकर इतना अभिभूत हो गया कि उसके मन में और जानने की उत्कट इच्छा बलवती हो गयी .
हुजूर ! सिंहगड के बारे में सुना बहुत था , लेकिन देखने का मौका आज मिला . मैं सिर्फ इतना ही जानता हूँ कि शिवा जी की माँ ने , शिवा जी के बार – बार आग्रह करने पर कि क्या मांगती हो मांगो अपने बेटे से , जो मांगोगी , वही दूंगा . शिवा जी वचनवध्य थे , उनकी माँ ने सिंहगड की मांग कर दी थी , जो मुगलों के अधीन था और जिसको फतह करना लोहे के चने चबाने जैसा था . लेकिन शिवाजी अपनी माँ को जान से भी ज्यादा प्यार करते थे , इसलिए शिवा जी ने अपने सेनापति की मदद से सिंहगड फतह करके अपना वचन पूरा किया था .
रामखेलावन ! तुम सही कहते हो . क्या तुम नहीं जानना चाहोगे कि किन विषम परिस्थितियों में सिंहगड फतह किया गया था ?
अवश्य .
तो ध्यान से सुनो :
सिंहगड मुगलों के कब्जे में था . इसका नाम कोंढाना ( Kondhana ) था. मुग़ल बादशाह तो दिल्ली में बैठते थे. यह किला मिर्ज़ा राजा जय सिंह की देख – रेख में था. पांच हज़ार मुग़ल सैनिक इसकी सुरक्षा में चौबीसों घंटे तैनात रहते थे . उदयभान , जो राजा जय सिंह के रिश्तेदार थे , को किले की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी.
शिवा जी की माँ ने जब शिवा जी से भेंट में सिंहगड की मांग कर दी , तो शिवाजी उदास बैठे चितामग्न थे . उसी वक़्त उनका सेनापति तानाजी आये और उदास होने की वजह जाननी चाही . शिवाजी ने सबकुछ साफ़ – साफ़ बता दिया . तानाजी शिवाजी को यकीन दिलाया कि वे किला फतह करके देंगे, चिता करने की कोई बात नहीं है . कुछ वक़्त लगेगा . शिवाजी जानते थे कि किला फतह करना लोहे के चने चबाना जैसे है. दूसरी ओर उन्हें भरोसा था अपने सेनापति तानाजी पर कि वे जो बोलते हैं , करके दिखाते हैं. शिवाजी एकतरह से निश्चिन्त थे . उधर ताना जी भीतर – भीतर तैयारी में जी जान से जूट गये थे . विजय के लिए पांच सौ सैनिकों को तैयार किया जा रहा था. सभी तरह की जानकारियां किले के बारे में , इसके सैनिकों के बारे में , हासिल की जा चुकी थी.
चार फरवरी दिन मंगलवार ( श्री राम भक्त हनुमान जी का जन्म दिन ) १६७० की मध्य रात्रि के वक़्त महज पांच सौ मराठी सैनिकों को लेकर तानाजी अभेद्य किले की दीवार को पार करते हुए मुग़ल सैनिकों पर टूट पड़े. हजारों मुग़ल सैनिक मारे गये , हजारों जान बचाकर भाग निकले .
तानाजी एवं उदयभान के बीच युद्ध जारी रहा घंटों तक. उदयभान और तानाजी दोनों बुरी तरह जख्मी हो गये. अंततोगत्वा किले पर मराठों का कब्ज़ा हो गया . ताना जी नहीं रहे , शहीद हो गये , पर अपना वचन पूरा कर गये.
शिवाजी ने जब सुना तो उनके मुँह से अनायास ही बात निकल पडी , “ गडा आला , पान सिन्हा गेला . ’’ अर्थात गड आया परन्तु सिंह चला गया .
शिवाजी ने ताना जी की स्मृति में कोंढाना ( Kondhana ) का नाम बदलकर सिंहगड ( Sinhagad ) रख दिया.
रामखेलावन पूरी तन्मयता से कहानी सूनी और बोला :हुजूर ! शिवाजी हमारे देश के पराक्रमी पुरषों में से एक थे . यही वजह है कि पूरा देश उनको श्रधा एवं सम्मान से नमन करता है. महाराष्ट्र में तो उनको मराठी लोग भगवान् की तरह पूजते हैं . इस महापुरुष को हमारा भी कोटी – कोटी नमन !
हमें दौड़ते दौड़ते भूख लग गयी .
हम तो रोटी – भात घर पर रोज खातें हैं . आज हटकर खायेंगे .
हमने प्रस्ताव किया तो रामखेलावन ने ‘ हाँ ’ कर दी .
हमने पावभाजी ली. जमकर खाए. फिर आईसक्रीम ली. वो एक चबूतरे पर बैठ कर खाने लगे तथा नजारा देखते रहे. एक तीन साल का बच्चा दौड़ा जा रहा था और माँ पीछ- पीछे पकड़ने के लिए दौड़ रही थी . बच्चा हाथ नहीं आ रहा था . सामने खाई थी कुछ दूर पर . रामखेलावन चीते की भांति उठा और बच्चे को लपक लिया . बड़ा प्यारा सा बच्चा था . मासूमियत उसके रोम –रोम से टपक रही थी. उसकी माँ को देने की बजाय बच्चे को मेरे पास ले आया. तबतक उसकी माँ भी आ गयी थी. पास ही गोद में बच्चे को लेकार बैठ गयी. हमने जब पूछा तो बतलाई वह पटना की है. उनके पति सोफ्टवेयर इंजिनियर है. वह भी सोफ्टवेयर इंजिनियर है. पुणे के पोश एरिया ‘ हरि – गंगा ’ काम्प्लेक्स में रहती हैं. लेकिन कुछ महीनों के लिए छुट्टी पर है. समर वेकेसन में वे लोग घर जायेंगे . पटना सुनना था कि रामखेलावन गोंद की तरह चिपक गया . ढेर सारी बातें की उस भद्र महिला से . मैं सज्जन व्यक्ति की तरह उठकर प्रकृति का आनंद उठाने में तल्लीन था. रामखेलावन मुझे तलाशते हुए आ पहुंचा और बोला : हुजूर ! अब हमें चलना चाहिए .
हम सूरज ढलने से पहले ही गेस्ट हॉउस पहुँच गये. दुसरे दिन दूरोन्तो से १५ .१५ बजे लौटना था . जलपान करने के बाद हमने आराम किया . लंच लेने के बाद पुणे स्टेशन आ गये . दूरोन्तो सामने ही खडी मिल गयी.
समय पर ट्रेन खुल गयी. शाम को नास्ता , टी – कॉफ़ी , रात को मनपसंद गरमागरम खाना मिला . हम कम्बल ओढ़कर सो गये . दूसरे दिन शुबह ब्रेकफास्ट , फिर टी – कॉफ़ी , शाम को जलपान , फिर टी- कॉफ़ी – सबकुछ समय – समय पर मिलता रहा . रामखेलावन ने चुटकी ली :
हुजूर ! इस तरह रेलवे मुफ्त में खिलाता रहे अपने यात्रियों को तो दीवाला निकलने में देर नहीं लगेगी . चंद दिनों में भठ्ठा बैठ जायेगा .
रामखेलावन ! ये सब का खर्चा टिकट की कीमत पर इनक्लूड याने जुड़ा रहता है . रेलवे अपने घर से थोड़े खिलाती है . वह तो महीनों पहले कीमत वसूल लेती है.
लेकिन जो बोलिए , हुजूर ! बहुत बढ़िया खिलाया . झूठ – मूठ लोग रेलवे को बदनाम करते हैं.
हम दूसरे दिन रात को आठ बजे हावड़ा पहुँच गये . मुंबई मेल से दो बजे रात को धनबाद और फिर धनबाद से अपना चौपाल शुबह तीन बजे .
इसमें कोई शक नहीं , हमारी यात्रा सुखद ही नहीं , अपितु ज्ञानवर्धक भी रही.
लेखक : दुर्गा प्रसाद , बीच बाज़ार, गोबिंदपुर , धनबाद , दिनांक : ५ मई , २०१३ , दिन : रविवार |
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