उलझनें
आज मैं एक बच्ची से मिली,
मासूम, भोली, प्यारी सी बच्ची
बचपन से दूर युवावस्था में कदम रखती
खुद में जाने क्या क्या समेटे हुए थी
प्रतीत होता था मानो जीवन से थक सी गयी थी
छोटी छोटी परेशानियों में उलझी हुई
जीवन की चुनौतियों से झगड़ती हुई
खुद से ही लाखों सवाल करती
दुनियां के सवाल – जवाबों से थककर
खुद ही उत्तर तलाशती हुई
जानती भी है की कुछ चिंताएं व्यर्थ हैं
कुछ सवालों के उत्तर भी नहीं
कुछ समझ भी है उसे दुनियांदारी की
कभी लगती है खुद से ही अनजानी सी
कुछ अंदर उसके टूटा सा है
सब कुछ पास तो है पर कोई अपना रूठा सा है
या फ़िर वो ही किसी से रूठ गई
सबसे मिलती तो है खुद से ही छूट गयी
कुछ देर मैंने भी किये सावाल खुद से
कि क्या है ऐसा जिसने घेरा है इसे
शायद ये नाराज़गी उसकी खुद से ही होगी
किसी की अपेक्षाओं पे खरा न उतार पाने की
अपनी काबिलियत अनुरूप सफलता न पाने की
आज सन्देश है मेरा बेटा तुम्हारे लिए
तुम्हारा ये जीवन है बस तुम्हारे लिए
न दुनियाँ को साबित तुम्हें कुछ करना है
न ही हर घड़ी हर कसौटी पे खरा उतारना है
जीना है हमें तो कठिन परीक्षाओं से तो गुज़ारना होगा
पर हौसला अपना बुलंद कर सही दिशा को ही चुनना होगा
कि सबको खुश कर पाना भले ही न हो हाथ अपने
कम से कम एक सच्चा इंसान एक अच्छी संतान तो बनना होगा
अब चिंताएं छोड़ सारी लक्ष्य अपना साध लो तुम
तुम क्या जानो माँ-पापा का सबसे सुन्दर अरमान हो तुम
तुम खुश रहो तो जिंदगी उनकी खूबसूरत होगी
सिर्फ बेटी ही नहीं उन दोनों की जान हो तुम ।
सिर्फ बेटी ही नहीं उन दोनों की जान हो तुम
उनके जीवन का सबसे हसीन अरमान हो तुम ॥
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