पापा के बाद से घर की देखभाल करने वाला कोई ना था. माँ इतना बड़ा मकान संभालने मे खुद को असमर्थ पा रही थी. बहुत बार फोन कर चुकी थी,“कब आ रही हो, राजी?”
और राजी भी बेचारी क्या करे? प्राइवेट नौकरी में सब कुछ भरपूर है एक छुट्टी के अलावा. आप बस छुट्टी मत मांगिये. पापाजी की बीमारी के कारण वैसे भी बहुत बार भाग-भाग कर घर जाना पड़ा था. मगर लाख कोशिशों के बाद भी उनको बचाया ना जा सका. पूरा एक महीना घर पर रही थी राजी. और बॉस ने एक पैसा नहीं कटने दिया.
“आप हमारी जिम्मेदार कर्मचारी हो आप का दुःख हम सब का दुःख है.”
जुर्माना देना पड़ जाये तो उतना बुरा नहीं लगता मगर किसी का नुकसान कर दो और वो माफ कर दे तो ज़िंदगी भर दिल पर बोझ सा रहता है. बस इसी वजह से छुट्टी नहीं मांग पा रही थी. मगर माँ का क्या करे उनको कैसे कहे आ पाना मुश्किल है. इसी उधेड़बुन में उलझी थी राजी कि ऑफिस की साथी नंदिता ने पूछा “कुछ परेशानी है क्या राज्यश्री?”
उसकी ओर देख बेचारगी से मुस्कुराते हुए राज्यश्री ने कहा “यार जानती तो हो छुट्टी की प्रॉब्लम. माँ घर बुला रही है और काम के मारे मरने की फुर्सत नहीं है.”
“सर से बात करके तो देख एक बार.” नंदिता ने सुझाया. “दो दिन की छुट्टी पड़ ही रही है, दो दिन की लीव ले ले एक सन्डे मिला कर चार पांच दिन मिल जायेंगे.”
“चल मैं आज ही सर से बात कर के घर जांउगी.” राजी ने कहा और उठ कर बॉस के केबिन में चली गई. बॉस उसकी परिस्थिति समझते थे, सो छुट्टी के लिए ज्यादा परेशानी न हुई.
“एक सलाह दूं मैं आपको?” बॉस के अचानक बोलने से राजी ने अचकचा कर देखा.
“जी सर..?”
“आप अपनी माँ को कुछ समय के लिए यहीं अपने पास क्यों नहीं ले आतीं? आप दोनों साथ होंगी तो एक दूसरे की चिंता तो ना होगी..”
“जी सर मैं कोशिश करूंगी मगर माँ मान जाएँ तब है. वो ना तो अपना घर छोड़ पाएंगी और ना अपना शहर.. फिर भी एक बार फिर से बोलती हूँ.” राजी ने हौले से कहा.
“अरे बोलिएगा नहीं ज़िद करके लाइए …आखिर आप उनकी इकलौती सन्तान हैं आपका हक भी बनता है और फ़र्ज़ भी.” बॉस ने कहा तो राजी मुस्कुरा उठी. जी सर बोलकर घर की ओर निकल पड़ी.
ट्रेन का सफर राजी को बचपन से रोमांचित करता था. हांलाकि एसी कोच में वो बात कहाँ जो माँ और पापाजी के साथ स्लीपर कोच में सफर करने की थी. पुरानी बातें याद कर राजी के चेहरे पर मंद सी मुस्कान तैर गई. सच में बचपन से अच्छे दिन कोई हो ही नहीं सकते. मगर अफ़सोस ये एहसास तब होता है जब बचपन बीत जाता है. यादों के समंदर में तैरते उतराते कब राजी को नींद आ गई पता ना चला. आँख खुली तो स्टेशन आने ही वाला था. झटपट सामन पैक कर राजी उतरने के लिए तैयार हो गई.
“अच्छा हुआ माँ को बताया नहीं किस ट्रेन से आ रही हूँ, नहीं तो आधी रात से स्टेशन पर खड़ी होती.” राजी ने मन ही मन अपनी पीठ थपथपाई. मगर ये क्या? स्टेशन के बाहर निकल कर ऑटो की ओर बढ़ी ही थी कि माँ की आवाज़ कानों में पड़ी. “बेटा गाड़ी इधर है…”
राजी खुशी और अचंभे से माँ से लिपट गई “आप कमाल हो माँ…और अगर मैं किसी और गाड़ी से आती तो?”
फिर माँ के पीछे खड़े भार्गव अंकल पर नज़र पड़ते ही बोली “ओहो तो आप भी हैं…कम-ऑन अब तो थोड़ा बड़ा मान लीजिए अंकल मुझे.”
और पास जाकर आदर के साथ अभिवादन किया. साथ खड़े बुजुर्ग व्यक्ति ने बड़े प्यार से उसके सर पर हाथ रख दिया.
“अब घर चलें?” राजी ने कहा और बच्चों की तरह कूद कर गाड़ी में बैठ गई. घर पहुँचने पर राजी को अहसास हुआ कि ये घर पापाजी के बिना कितना सूना हो गया है. पता नहीं माँ कैसे रह पा रही होंगी.
“एक बात बताओ माँ..” नाश्ते की मेज़ पर बैठते हुए राजी ने माँ से कहा.
“क्या?” नाश्ता सर्व करते हुए माँ के हाथ जैसे किसी आशंका से काँप गए…
“अब आपने क्या सोचा है?” राजी ने गम्भीर स्वर में माँ से पूछा.
“क्या सोचा है क्या मतलब?” माँ ने अनजान बनते हुए कहा.
“माँ मैं हर महीने घर नहीं आ सकती और न ही आपको अकेले यहाँ रहने दे सकती हूँ. क्या आप सब कुछ छोड़ कर मेरे साथ चलोगी?”
“जाने की तो कोई बात नहीं है बेटा, मगर मै कितने दिन तुम्हारे पास रह पाऊँगी. कल को तुम्हारा अपना घर-संसार होगा उसको देखोगी या माँ को लटकाए घूमोगी!” माँ ने वातावरण को हल्का बनाये रखने का प्रयास किया.
“माँ मगर आपको अकेला भी तो नहीं छोड़ सकती. इतने बड़े घर को संभालना भी आपके लिए मुश्किल काम है.”
“चल अभी नाश्ता खत्म कर और थोड़ा आराम कर ले सारी रात सफर कर के आई है.”
माँ ने बात-चीत को खत्म करने के उद्देश्य से राजी को कमरे में भेज दिया. मगर राजी को तो बिस्तर पर भी चैन ना था. ना तो वो माँ के साथ ऐसा कुछ करना चाहती थी जो उनके मन के विरुद्ध हो और न ही उनको अकेला छोड़कर जाना चाहती थी. ऐसे में कोई बीच का मार्ग निकल आये जिससे वो दोनों खुश भी हों और संतुष्ट भी. अपना चढ़ता कैरियर भी नहीं छोड़ सकती थी और माँ को भी नहीं छोड़ सकती. दूसरी ओर माँ न तो पुश्तैनी मकान छोड़ सकती थी और ना ही उसकी ठीक से देख-भाल कर पा रहीं थी. माँ बेटी की अपनी-अपनी दुविधा थी जिसका दोनों में से किसी के भी पास हल न था.
इसी सोच-विचार में राजी कब सो गई पता ही ना चला. बाहर की आहटों से जब नींद टूटी तो घड़ी की ओर देखकर राजी अचम्भित हो गई. शाम के चार बज चुके थे. बाहर आकर माँ से शिकायत करनी चाही तो देखा माँ के पास कई महिलाएं बैठी थीं, उनकी चाय पार्टी चल रही थी. वो वापस जाने लगी तो माँ की नज़र पड़ गई,“अरे जाग गई बेटा!आजा इधर आ मुझे तुझको मिलवाना था.” और एक-एक स्त्री का पूरा परिचय देकर मिलवाया. उन सबको देख कर जैसे अचानक राजी को कुछ सूझ गया.
रात का खाना भार्गव अंकल के घर था. माँ बेटी दोनो नियत समय से पहले ही उनके घर पहुँच गईं. माँ तो श्रीमती भार्गव के साथ व्यस्त हो गई और राजी भार्गव साहब के पास बालकनी में आकर खड़ी हो गई.
“मुझे आपसे कुछ सलाह लेनी थी अंकल”,सन्नाटा तोड़ते हुए राजी ने भार्गव साहब से कहा.
“हाँ,हाँ बोलो बेटा क्या बात है?”
“अंकल मैं माँ को लेकर चिंतित हूँ. जब तक पापा थे मुझे माँ की, घर की कोई चिंता नहीं थी. मगर अब बात और है. माँ की देख-भाल करना अब मेरी जिम्मेदारी है. और मेरी नौकरी ऐसी है कि बार-बार छुट्टियाँ नहीं मिल पाती और माँ है कि किसी हालत मेरे साथ जाने को तैयार नहीं हैं.” राजी ने अपनी परेशानी भार्गव साहब को बताई.
“तो क्या चाहती हो बेटा मै भाभीजी को तैयार करूँ तुम्हारे साथ जाने को?” भार्गव साहब नें राजी के मन की थाह लेनी चाही.
“अरे नहीं अंकल अगर माँ घर नहीं छोडना चाहती है तो मैं उसको मजबूर नहीं करुँगी.” राजी ने संयत स्वर में कहा,“मैं तो कुछ ऐसा यहीं चाहती हूँ जिससे माँ व्यस्त भी हो जाएँ और अकेली भी ना रहें.”
“तो कुछ सोचा है क्या?”,भार्गव साहब ने जिज्ञासा से पूछा.
“जी अंकल. इतना बड़ा घर है हमारा, कितने कमरे तो बरसों से इस्तेमाल ही नहीं हुए हैं. पैसे की कभी कोई समस्या नहीं हुई तो किरायेदार रखने का विचार भी नहीं आया. जब तक पापा थे उनकी पार्टियां, दोस्त, रिश्तेदार सब का मेला सा लगा रहता था मगर उनके बाद घर में सन्नाटा सा छा गया है. माँ के भीतर का खालीपन तो भरना मुश्किल है मगर घर का खालीपन तो दूर किया जा सकता है ना.”
भार्गव साहब नें आतुरता से पूछा “वो कैसे बेटा?”
“क्यों ना हम घर में एक वृद्धाश्रम खोल लें, जिससे माँ को काम भी मिलेगा और साथी भी. वैसे भी ऐसे कितने ही बुज़ुर्ग लोग हैं जिनकी ठीक से देख-भाल करने वाला कोई नहीं हैं और कुछ बुज़ुर्ग ऐसे हैं जो हाथ-पाँव से सक्षम हैं मगर उनके पास करने को ऐसा कुछ नहीं है जिस से उनको संतुष्टि हो. फिर अंकल आप शायद मुझे ज्यादा बेहतर जानते होंगें कि मित्र और साथी की आवश्यकता इंसान को हर आयु में रहती ही है. जब चार-छः लोग साथ रहेंगे तो समय कहाँ बीत जायेगा पता भी नहीं चलेगा. माँ के साथ-साथ और भी लोगों को सहारा मिलेगा और जीवित रहने की वजह भी.”
अपनी बात पूरी करके राजी ने भार्गव साहब की ओर आशा भरी नज़रों से देखा. भार्गव साहब की आँखों में आंसू से झिलमिला उठे. वो खुश होते हुए बोले,”वाह बेटा क्या बात कही है! सच में अगर ऐसा हो जाए तो हम और तेरी आंटी दोनों ये घर छोड़कर वहीं रहना शुरू कर देंगे.”
पता नहीं कब से पीछे खड़ी राजी की माँ और श्रीमती भार्गव उनकी बातें सुन रहीं थी. माँ ने लपक कर राजी को गले लगा लिया,“मेरी बच्ची”.
भार्गव साहब और उनकी पत्नी भी बहुत प्रसन्न हो रहे थे. अब राजी निश्चिन्त थी. उसने माँ का खालीपन भरने का मार्ग जो तलाश लिया था.
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