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That Small Kitchen

Published by Durga Prasad in category Friends | Hindi | Hindi Story with tag food | friendship | house | Rent | wife

वो किचेन का छोटा सा कमरा  – That Small Kitchen: Hindi Short Story on friendship from an Autobiography.

(This Hindi story is part of an autobiography which shows emotional relation between writer and his close friend as they share few unforgettable years.)

gas stove burning

Hindi Story: वो किचेन का छोटा सा कमरा  (That Small Kitchen)
Photo credit: mconnors from morguefile.com

यह बात १९६८ की है जब पहली बार अपनी धर्मपत्नी को अपने साथ रामगढ़ ले आया. मेरी नौकरी इंडिया फायर ब्रिक्स इन्सुलेसन कंपनी लिमिटेड में एकाउन्ट्स एसिस्टेंट के पद पर लग गई थी और मुझे काम करते हुए कई महीने हो चुके थे. मैं जब अकेला था तो मुझे बैचलर क्वाटर मिला हुआ था . किसी तरह का भाड़ा भी नहीं लगता था. बगल में सी. पी. फिलिप्स था जो चीफ इंजिनियर शर्मा साहेब का पी. ए. था. परिवार लाने  की बात चली तो एक फ्लेट ३५ रूपये में भाड़े पर ले लिया. यह जगह शहर से करीब चार किलोमीटर  पर था. कई क्वार्टर बने हुए थे जिनमें परिवार के साथ कम्पनी के लोग रहते थे.

मैं पत्नी के साथ घर में प्रवेश किया तो भीतर काफी गंदगी फ़ैली हुई थी. मैथ्यू के घर से झाड़ू मांग कर ले आया तो पत्नी ने झाड़ू लेकर कमरे आदि साफ़ करनी शुरू कर दी. तबतक दो-चार बाल्टी पानी भी कुएं से भर कर ले आया. जहाँ जरूरत थी वहां हमने पानी से साफ़ कर देना उचित समझा. उस दिन तो हम थके- हारे थे इसलिए खाना बनाना सम्भव न हो सका. हम घर से पूड़ी और सब्जी साथ लाए थे. कुछ तो रास्ते में खा लिए थे और कुछ बचे हुए थे.  जो भी था हम खा- पीकर सो गए. मैं तैयार  हो कर ऑफिस चला गया . टिफिन में आने की बात कह कर गया तथा खाना बनाकर रखने की हिदायत कर दी. घर में लकड़ी इफरात थी.

मैं दोपहर को लौटा तो देखा दाल, भात , सब्जी बनी हुई है. चूल्हा तो था नहीं. पत्नी ने इंटें लगाकर खाना बना लिया था. ठीक गेट की बाईं ओर.  मेरे कार्यालय एवं क्वार्टर की दूरी लगभग दो  किलोमीटर थी. आने- जाने में चालीस मिनट लग जाते थे. मैं जल्द खाकर फुस्की रास्ते से निकल जाता था. इस रास्ते से जाने में दस- पन्द्रह मिनट की वचत हो जाती थी. बैचलर क्वार्टर में मेरे साथ तारिणी प्रसाद बरई रहता था जो कतरास का रहनेवाला था. हमारे रूम के बगल में सी. पी. फिलिप्स रहता था.जो चीफ इंजिनियर शर्मा साहेब का पीए था.

तारिणी और मैं साथ –साथ एक सिंगल कमरे में रहते थे. कम्पनी द्वारा हमें बिना भाड़े का एलोट हुआ था. हम अपना खाना खुद बनाते थे. मेरी उम्र महज बाईस साल की थी. मैं थोड़ा लापरवाह किस्म का आदमी था जबकि तारिणी बड़ा ही गंभीर व हुशियार किस्म का. मैं वातुनी था जबकि वह मितभाषी. इसलिए सोच- समझ कर मैंने उसे अपना गार्जियन बना लिया था तथा सब कुछ उसके जिम्मे कर दिया था. एक कापी रहती थी जिसमें हमारे द्वारा किये गए खर्चे  का व्योरा लिखा जाता था.

वह हमारे जोयन करने के दो महीने बाद Typist के पद पर जोयन किया था. उसकी डियूटी आठ बजे शुबह से थी जबकि मेरी  नौ बजे से. इसलिए वह तैयार होकर सात- सवा सात में निकल जाता था. हमने जरूरत के सामान रामगढ़ बाजार से ले आये थे. उसने मेरी एवं अपनी डियूटी बाँट दी थी. चूँकि मुझे देर से ऑफिस जाना होता था , इसलिए उसने मुझे खाना बनाकर खाकर तथा उसके लिए अच्छी तरह ढककर जाना पढता था. मुझे इतना सबेरे दाल-भात खाने की आदत नहीं थी, इसलिए बहुधा मैं पूरा खाना बनाकर जाता था तथा टिफिन में एक साथ हम आते थे और एक साथ बैठकर खाते थे.

तारिणी ही थाली लगाता था. वह मेरा बहुत ख्याल रखता था तथा पुछ्पुछ्कर खिलाता था. बीच- बीच में मुझे किसी बात पे डांट भी देता था. शाम को वही खाना बनाता था. मुझे कोई भी काम करने नहीं  देता था. पढ़ने के लिए वह मुझे प्रोत्साहित करता था. उस समय मैं रांची विश्वविद्यालय से बी.एल. की पढ़ाई कर रहा था. पढते वक़्त उसने कभी भी मुझे डिस्टर्ब नहीं किया चाहे जितना भी जरूरी काम  ही न आ पड़े. एक बार तो उसका हाथ भी जल गया था. दूध गरम करने के लिए सोसपेन  चुल्ल्हे पर बैठा कर पानी लेने चला  गया था. जब आया तो देखा दूध उफन रहा है. जल्दबाजी में उतारने गया तो हाथ ही जला बैठा.मगर दूध फेंकने से बचा लिया था. उसने मेरी तरफ देखा और एक शब्द भी नहीं बोला.

ऑफिस में भी जब मैं धुलिया साहेब के मिसबिहेव से परेसान हो जाता था और नोकरी छोड़ने की बात करता था तो  वही मुझे बड़े दुलार से समझाता था. कहता था,” ये सब तो ऑफिस में चलता ही रहता है. जरा-जरा सी बात पर आवेश में आकार लोग नौकरी छोड़ने लगे तो क्या परिणाम होगा , कभी सोचा है ? कंपनी का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन हमारी ? हमारी तो रोजी- रोटी ही बंद हो जायेगी – भूखों मरने की नौबत आ जायेगी. कभी सोचा है इस विषय पर? रहा धुलिया साहेब की बात – वे इतने बुरे आदमी नहीं है जितना तुम सोचते हो. वे मुहं के भले ही कटु हैं ,लेकिन दिल के बहुत साफ़ हैं. तुम्हारी अनुपस्थिति में तो वे तुम्हारे कामों की प्रशंसा करते नहीं थकते. विश्वास नहीं है तो ध्यानी जी से पूछ  लो.( ध्यानी जी धुलिया साहेब के कजीन थे और सीनियर एकाउंट्स एसिस्टेंट के पद पर कार्यरत थे.)

ध्यानीजी एक सच्चे इंसान थे. किसी भी काम को वे बड़े ही मनोयोग से करते थे. सच पूछिए तो सभी लोग उनकी इज्जत करते थे. मैं तो उनका भक्त था. उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा जो बाद के दिनों में मेरा बड़ा काम आया. व्यवहारकुशल, मितभाषी, गंभीर, शांतिप्रिय और अपने काम में दक्ष – ये उनके व्यक्तित्व की विशिष्ट  विशेषताएं थी. जबकि धुलिया साहेब इसके विल्कुल विपरीत थे. मुझे प्रत्येक महीने के अंत में Trial Balance  बनाना पडता था. धुलिया साहेब मेरे सामने आकार बार-बार पूछते रहते थे, “ ट्रायल टेली हुआ, क्या डिफरेंस है?”

मुझे बीच – बीच  में टोकते रहना  बड़ा बुरा लगता था .विरोध जता भी नहीं पता था, क्योंकि विरोध जताना अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मारने जैसा था. लिमिटेड कंपनी रहते हुए भी प्राईवेट कंपनी जैसा वर्ताव व व्यवहार था. इसकी वजह प्रशासनिक  शक्ति चन्द लोगों के हाथों में ही थी , क्योंकि पचास प्रतिशत से अधिक के अंशधारी ये लोग ही थे.  फलतः इनकी और इनके अपने लोगों की तूती बोलती थी.   तारिणी की हिदयायत थी कि मैं साफ़- सुथरा खाना बनाऊं. मैं माड पसाकर भात डेकची में ही रख देता था. दाल छौंक्कर रख देता था. सब्जी अलग से कढाई में ही ढककर रख देता था.

हमलोग खा-पीकर अपना-अपना वर्तन तत्काल साफ़ कर रख देते थे. तारिणी का कहना था कि जूठा वर्तन नहीं रखना चाहिए. शाम का खाना बनाने की जिम्मेदारी उसकी थी. वह बड़ी ही तन्मयता से रोटी-सब्जी एवं दाल बनाता था. सब्जी में उसे आलू का भुंजिया बहुत पसंद था. सप्ताह के सातो दिन वह आलू का भुंजिया ही बनाता था . और क्या कहूँ आलू को वह इतना  महीन- महीन रच-रच कर  काटता था तथा धीमे आंच में भुन्जता था कि भुंजिया लाल व खुरदरा हो जाता था. मुझे बीच में टोकने की मनाही रहती थी फिर भी मैं कुछ न कुछ टुबक देता था.

बड़ी अच्छी फिल्म लगी हुयी थी रामगढ़ में. मैंने साहस बटोर कर कहा,” बड़ी अच्छी फिल्म लगी है, संडे मेटनी शो में देखा जाय.”

मेरा इतना बोलना था कि उबल पड़ा, “ अगले महीने तुम्हारी परीक्षा है , इसकी फिक्र नहीं है बाबू साहेब को, और चले सिनेमा देखने बच्चू, सिनेमा में क्या रखा है , धर-पकड़ , नाच-गाने  के सिवा. आजकल सिनेमा भला आदमियों के लिए नहीं रह गया.  बकवास है बकवास. जाओ, एक चक्कर लगाकर काठ गोदाम की तरफ से आओ, देखो, कुत्ते के बच्चे सब क्या करते हैं.”

मैं चुपचाप न चाहते हुए भी उठकर चल दिया . मैं चाहता नहीं था कि और कोई बात पैदा हो.  इस पर तारिणी मेरी तरफ घुरघुर के देख लेता था. मैं उससे बहुत डरता था. मैं चोकी पर बैठे-बैठे जब उंघने लगता था तो वह झटपट मेरे लिए खाना लगा देता था. अपना खाना वह थोड़ी देर बाद खाता था. हमलोग आधा लिटर दूध लेते थे. वह दूध खौलाकर वर्तन में रख देता था. खाने के बाद वर्तन मांजकर करीने से रखना वह कभी नहीं भूलता था. मैं काफी थका रहता था ,इसलिए अक्सरां सो जाया करता था. तारिणी मुझे उठाकर दूध पिलाकर तब खुद दूध पीता था. मेरी कांच की गिलास लबालब भरी रहती थी, ऊपर से छाली. उसे कितना संतोष था यह बात मैंने पहली बार एहसास किया था.

एक बार तो वह गिलास थमाकर कुएं पर वर्तन मांजने चला गया. मैं नें गिलास खिड़की की बीचवाली डाड पर रख दी और गर्म दूध सेराने का इन्तजार करने लगा . तत्क्षण एक बिल्ली आई – बड़ी सावधानी से किनारे बैठ गई और ऊपर ही ऊपर गिलास के दूध को सुडक गई – मैं अवाक सब कुछ देखता रह गया. आश्चर्य की बात यह थी कि गिलास जरा सी भी हिली-डुली नहीं- अपने स्थान पर स्थिर ज्यों कि त्यों खड़ी रही – अडिग व अचल. मेरे पेट में गैस होने लगा. जब तारिणी आया तो उसे सारी बातें बताईं तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि ऐसा भी हो सकता है.

इस घटना की  चर्चा कोलोनी में हुई तो मिसेस सिंह ने बताया कि बिल्लियाँ इस फन में जन्म से ही माहिर होती है. वह ऊपर से ही वर्तन का सारा दूध सुडक सकती है चाहे गिलास ही क्यों न हो. मिसेस सिंह ने जानकारी दी कि बिल्ली को नहीं मारना चाहिए – बिल्ली ब्रहामणी होती है. कहीं खुदा न खास्ता मर गई तो मारनेवाले को पाप लगता है और पापमुक्त होने के लिए सोने की बिल्ली दान करनी पड़ती है. बिल्ली को कमरे में बंद करके भी अकेले में नहीं मारना चाहिए. बिल्ली की जान पर आफत आ जाने पर लपक कर टोंटी पकड़ लेती है और तबतक नहीं छोड़ती जबतक आदमी मर नहीं जाता. बिल्ली से जितना दूर रहिये उतना ही अच्छा. ऐसी कई घटनाएँ हो चुकी है ,इसलिए मैं बतला रही हूँ. बिल्ली जब दो पैरों पर खड़ी हो जाती है तो शिकारी कुत्ते भी दूम दबा कर भाग खड़े होते हैं. बिल्ली बाघ प्रजाति का जानवर होती है.

मिसेस सिंह की बातों को सुनने के लिए धीरे- धीरे कोलिनी के बैचलर लोग जूट गए. मिश्राजी, रायजी , फिलिप्स. शर्माजी, कुकरेजा बाबू घेरकर खड़े हो गए और  तब तक खड़े रहे जबतक साधना (मिसेस सिंह की बेटी) उसे बुलाने न आ गई. मैं मिसेस सिंह की बात को बड़े ध्यान से सुना, लेकिन औरों का ध्यान कहीं और ही था. हमलोग धीरे-धीरे अपने कमरे में चले आये. मिश्राजी वहीं रुक गए एक नज़र साधना जी का पाने के लिए. सभी को मालूम था मिश्राजी एवं साधना जी  में कुछ प्यार – वार का चक्कर है. मुझे इन सारी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी. मुझे यकीं भी नहीं था क्यों कि मिश्राजी दिलफेंक किस्म के आदमी थे, लेकिन चरित्रहीन  नही. ऊपर से तारिणी ने आवाज दी , ‘’ गप-सप  ही होगा कि खाना भी बनेगा . ‘’

मैं दौड़कर गया और खाना बनाने में जूट गया. तारिणी का ऑफिस जाने का समय हो गया था – वह बैग उठाया और चल दिया. मैं नित्य की भांति खाना बनाने में जुट गया. भात बनाकर रख दिया और कुएं से पानी लेने चला गया.   कुत्ता किसी की भात की डेकची लिए जा रहा है. हो न हो दुर्गा की ही है. मिश्रा जी ऊपर से ही चिल्लाये,” दुर्गा प्रसाद , कुत्ता तुम्हारा भात की डेकची लेकर, देखो भागा जा रहा है, पकड़ो साले को. वो भाग रहा है.”

मैं बाल्टी जगत पर छोड़ कर कुत्ते के पीछे भागा, लेकिन वह मेरी पकड़ से दूर काठ गोदाम की तरफ चल दिया  और डेकची को उल्टा कर भात खाने लगा. मैं काफी नर्वस था कि क्या करें ऐसे वक्त में. मुझे डर भी लग रहा था कि कहीं डेकची छिनने के क्रम में कुत्ता मुझे काट न ले. यदि ऐसा हुआ तो मुझे कुत्ते काटने के चौदह इंजेक्सन लेने पड़ेंगे.  इसलिए मैं वापिस खाली हाथ लौट आया. मिसेस सिंह चुटकी लेती हुई बोली , “क्या प्रसाद जी, कुत्ते को पूरी डेकची खाने के लिए छोड़ कर चले आये?”

मैंने कोई जवाब देना उचित नहीं समझा और अपने कमरे में लौट आया. मुझे किसी बात की परवाह नहीं थी. जो बात मुझे खाए जा रही थी ,वह थी कि तारिणी को क्या जवाब दूँगा जब वह इस घटना ( दुर्घटना) के बारे में जानेगा. मुझे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. ऑफिस जाने का समय भी हो रहा था. मैंने मन बना लिया कि जो भी मुसीबत आयेगी, सामना करूँगा वो भी डंटकर. मैं मोका देखकर तारिणी को पहले ही सब कुछ सच सच बता देना चाहता था. एक बजते ही पान ( तारिणी जर्दा पान खाने का आदी था ) खाने के बहाने सरजू की दूकान पर ले जाऊंगा और सारी बातें बता दूँगा, जो होगा देखा जायेगा. थोड़ी देर गुस्सा होगा ,डांटेगा डपटेगा और थोड़ी देर बाद चुप हो जायेगा. गलती मेरी है, जवाब नहीं देना है किसी भी हाल में. जब तूफान थम जायेगा तो नारायण साव के होटल में ले जाकर खाना खिला दूँगा और स्वं भी खा लूँगा.

वह करीब बारह बजे मेरे पास आया और कहा,” पान खाने( मैं भी जर्दा १२० पीला पत्ती देकर पान खाने का शौकीन था) चलोगे?’

मैं उठा और चल दिया. पूछ बैठा, “ आज खाना में क्या-क्या बनाया है ?”’

न तो मैनें ऐसे सवाल की उम्मीद की थी न ही ऐसे वक्त आने के बारे ही सोच रखा था. मुश्किलें घटने की जगह और बढते ही जा रही थीं .

“चलो होटल में बैठते हैं , तुमसे कुछ जरूरी बात करनी है. पान बाद में खा लेंगे.”

“ठीक है” कह कर उसके साथ होटल के  एक कोने में बैठ गए.

“मेरा एक छोटा भाई है, घर पर बेकार बैठा हुआ है. सोचता हूँ तुम भुट्टा साहेब ( भुट्टा साहेब प्लांट मैनेजर थे और मैं उनके दो लड़कों का टिउसन करता था.) से बोलकर दशरथ को कोई, कोई भी काम दिलवा देते.”

मैंने बिना सोचे समझे कह दिया- कौन सी बड़ी बात है.काम हो जायेगा.

“तो बुला लूँ ?”

“बुला लो , अब तो रहने की भी कोई असुबिधा  नहीं है”

” सो तो है. तो देर किस बात की. सच बताओ, तुम भाभी को क्यों नहीं गौना करके ले आते ? बताते हो यह पांचवा साल जा रहा है. अपने तो —— और उसको जो तकलीफ देतो हो – यह अच्छी बात नहीं है. तुम उसके साथ ज्यादती कर रहे हो. सो तो है, लेकिन मेरी मजबूरी है. मेरी सेलरी कितनी कम है – तुमसे छुपा हुआ नहीं है इतने कम पैसे में घर भाड़ा कैसे लेकर रह सकता हूँ. तुम्हारे जैसा —–? एक सिंगल रूम का भी फ्लेट लेंगे तो २५-३० रूपये महीना से कम नहीं मिलेगा. तुम तैयार तो हो जाओ मानसिक रूप से फिर देखते हैं क्या कर सकते हैं. दसरथ भी कमाने लगेगा तो कुछ मदद हो ही जायेगा.”

बात करते करते एक बज गया. टिफिन का वक्त हो गया. तारिणी  झट उठ कर जाने को हुआ तो मैंने हाथ पकड़कर बैठाते हुआ बोला, “ आज यहीं खा लिया जाय.”

“खाना नहीं बना क्या?” उसने सवाल किया.

मैंने जवाब दिया,” असल में बना था लेकिन !”

“लेकिन क्या ?” उसने पूछा.

मैंने परत दर परत सारी बातें खोल कर रख दी. “हमें शक था तुम एक दिन यही करोगे किवाड खोल कर चले जाओगे इधर-उधर गप्पसप मारने  और कुत्ता घुसकर खाना खा जायेगा. फिर दुबारा क्यों नहीं बना लिए?”

मैंने डेकची ले जाने की बात चालाकी से छुपा ली थी अब बात उठने पर भांडा फूटने ही वाला था इसी में बुद्धिमानी थी कि मैं सारी बातें सच सच उगल दूँ. और वही मैंने किया. उसे बता दिया कि किस प्रकार कुत्ता भात की डेकची को घसीटता हुआ सब के सामने से ले गया वो भी काठ गोदाम तक और हम हाथ मलते रह गए. पड़ोसी वालों ने खासकर मिसेस सिंह ने किस प्रकार हमारी मजाक उडाई.

गुस्से में उसने कहा,” जैसा तुम लापरवाह रहते हो न, एक दिन कुछ भी बड़ा हादशा हो सकता है. किसी दिन बिल्ली ,किसी दिन कुत्ता – यह सब क्या हो रहा है?

मैंने चुपचाप बर्दास्त कर लेना बेहतर समझा, जवाब नहीं दिया. शाम को काम के बोझ से थोड़ी देर ज्यादा रुकना पड़ा. जब आये क्वार्टर तो अँधेरा हो चूका था. तूफान के जाने के बाद जो खामोशी छा जाती है, वही बात हमारे घर पर थी. मैंने ही बात शुरू की, “ आज खाना में क्या बनेगा?”

तारिणी नोर्मल हो चूका था, फिर भी बात में गर्मी थी. बोला, “ तुम्हें सोचने की जरूरत नहीं, जो बनना होगा, समय पर बन जायेगा. कुएं से एक बाल्टी पानी भर के ले आओ. और ? अच्छा बाद में —- .”

मैं चाहता भी यही था कि मुझे बाहर का ही काम मिले. मैंने पानी झट ला दिया और आहिस्ता से उठकर चल दिया. मिश्राजी देखते ही झट बोल उठे, “ एक आदमी घट रहा था, चलो ट्वेंटी नाईन खेलें.”

तास खेलने हम बैठ गए तो बैठ गए. समय का पता ही न चला, नौ बज गए.

“ तारिणी देखेगा तो बिगड़ेगा, मैं जाता हूँ.” उठकर मैं चल दिया.

“कहाँ गए थे. मिश्रवा के साथ तास खेलने से पेट नहीं भरेगा. उसका क्या रईश आदमी है, काम नहीं भी करेगा तो चल जायेगा. और तुम्हारा ? तुम कोल्हू के बैल की तरह रात-दिन खटते हो और मिश्रवा मस्ती से घूमते रहता है इधर-उधर , कोई पूछनेवाला है उसे , धुलिया साहब भी कुछ नहीं बोलते. मिश्रा परसुरामपुरिया  जी ( ओ. एस. डी ) का खास आदमी है- यह बात तुम्हारे सिवा सब को मालूम है. है न ?चलो हाथ- मुहं धो लो और खाने बैठो”

. मैं चुपचाप बैठ गया – खाना बे मन से खाया और सो गया. शुबह उठा तो तारिणी डेकची के बारे पूछ दिया. मैंने साफ-साफ बता दिया कि डेकची कुत्ता ले गया तो मैं कैसे लाता. चलो देखते हैं. हम काठ गोदाम चल दिए. कुत्ता मजे से अपने चार बचों के साथ डेकची उलट- पुलट कर भात खा रहा था. बच्चे उछल कूद मचा रहे थे. हमें देखते ही दूर खड़ी कुतिया गुर्राई.

” जाने दो डेकची, एक दूसरी खरीद लेंगे. अब डेकची छीन कर लेना संभव नहीं , हो सकता है काट ले.” – तारिणी ने अपना मंतव्य रखा.

हम लौट कर कमरे में चले आये और खाना बनाना स्थगित रखा. दोनों साथ ही ऑफिस के लिए निकले. काम निपटा कर जब लौटे तो देखा नीचेवाला फ्लेट खाली हो रहा है. मैंने शर्मा जी से पूछा तो पता चला कि उनकी नौकरी बोकारो स्टील में लग गई है, इसलिए जा रहें हैं, कल ही जोयन करनी है डियूटी. मुझे फेमली लानी थी और मैं एक अच्छे , लेकिन सस्ते क्वार्टर की तलाश में हमेशा रह्ता था. मैंने बिना विलम्ब किये सीधे सेठ जी से बात की और पैंतीस रूपये मासिक पर भाड़े पर ले लिया. अग्रिम एक महीने का भाड़ा भी पेमेंट कर दिया.

दूसरे दिन रविवार था छुट्टी का दिन. तिवारी जी से चाभी ले ली और घर  को लेबर लाकर साफ करवाया. तारिणी देखकर बोला,” बड़ा जल्दी सबकुछ हो गया, मुझे बतलाया भी नहीं.”

“ वक्त नहीं मिला बतलाने का, सबकुछ अचानक  हो गया “

शनिवार को घर आया. सबकुछ पहले से ही रेडी था. संडे को ही पत्नी को लेकर चला आया. सोमबार को शाम को तारिणी को खाने पर बुलाया. बहुत तरह की बातें हुईं. तारिणी की शादी चार साल पहले हो गई थी और यह उसका पांचवा साल चल रहा था. ससुराल रांची के किसी नजदीक के गावं में था. इसी साल गौना का मुहूर्त बनता था.

मैंने सलाह दिया,” गौना कराके भाभी को तुम भी ले आयो तो अच्छा रहेगा. तुम तो अकेले —-? उसके भी तो कुछ अरमान हैं. चार साल से नैहर में है, अच्छा लगता है क्या?”

तारिणी जब मेरी बात खत्म हो गई तो बोला, “ तुम तो जानते हो मेरी सेलरी कितनी  है. क्या मैं तुम्हारे जैसा घर भाड़ा दे सकता हूँ वेतन से , तो खाऊंगा क्या?”

“यहीं ले आयो, साथ-साथ रहेंगे जैसा कि हम दोनों एक ही कमरे में रहते थे. इस फ्लेट में देखते  हो एक बड़ा सा कमरा है और एक छोटा सा किचेन है, बड़ा सा बरांडा है और बड़ा सा आँगन भी है. “

“तो कैसे दो फेमली एडजस्ट होगा ?” –तारिणी ने स्थिति को समझाते  हुए सवाल किया.

बात भी सही थी ,इसलिए मैं कुछ जवाब नहीं दे सका. तारिणी उदास मन चला गया. रात को हम पति-पत्नी इस विषय को लेकर चिंतन करते रहे और कोई हल निकालने के प्रयास में तन-मन से जूट गए. तारिणी स्वाभिमानी व्यक्ति था. वह वेवजह मदद लेने को कतई तैयार नहीं हो सकता था –यह बात मुझे अच्छी तरह मालुम थी. इसलिए हमें सोच समझ कर ही कोई कदम उठाना था ताकि हमारी बात भी रह जाये और उसको ठेस भी न पहुंचे.

मेरी पत्नी ने एक माकूल सलाह दी,” क्यों न बड़ा रूम तारिणी को दे दें और हम किचेन में रहें.”

मैंने बात आगे बढ़ायी,” भाड़ा आधा-आधा बाँट लें, क्यों?”

“आधा क्यों, उससे अगर पन्द्रह रूपये ही लें, हम पांच रूपये ज्यादा ही दें तो क्या हर्ज है? पूछ कर देखिये, तारिणी जी तैयार हो जायेंगे- ऐसा मुझे विश्वास है.”

इस मामले में इत्मीनान से बात करनी जरूरी थी. संडे की शाम को तारिणी को खाने पर बुलाया तो वह न चाहकर भी चला आया. खाना खाने के बाद हम इकठ्ठे बात करने बैठ गए.

मैंने ही बात उठाई,” तारिणी , तुम गौना करवाके भाभी को ले आओ, बड़ेवाले कमरे में तुमलोग रहना और छोटे में हमलोग.’’

“ पागल हुए हो क्या, किचेन में ! वो भी इतना छोटा कमरा, कैसे रहोगे?” तारिणी ने सवाल किया.

मेरी पत्नी आगे बात बढ़ायी पूरे आत्मविश्वास के साथ, “हम रह लेंगे न, बस रात ही बितानी है. एक बार सो जायेंगे तो शुबह हो जायेगी.”

“आप लोंगों को तकलीफ —- ? वो सब मत सोचिये. घर जाईये, कोई अच्छा दिन देख कर गौना करके सीधे यहाँ लेते आईये. ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है. बाकी सब भगवान मालिक हैं.”

“भाड़ा मुझको कितना देना पड़ेगा हरेक महीना ?”

“ पन्द्रह रूपये “

या “ या वो कुछ नहीं, पन्द्रह रूपये मैं हरेक महीने दे दिया करूँगा.?” –तारिणी ने अपनी बात रखी.

हमलोग बहुत खुश हुए यह जानकार कि आखिर तारिणी ने हमारी बात सहजता से मान ली. अगले सप्ताह ही तारिणी गौना करवाकर अपनी पत्नी को लिवा आया. हमने आपस में अलग-अलग खाना बनाने का निर्णय लिया ताकि आपसी प्रेम बना रहे. हमलोग बरांडे में ही खाना बनाने लगे और अपने-अपने रूम में सोने लगे. पत्नी में सूझ- बुझ की कोई कमी नहीं थी. हमलोगों के पास एक छोटी सी चौकी थी. शुबह होते ही बाहर निकाल दिया करते थे और भोजन करने के बाद रात को किचेन में घुसा दिए करते थे.

पत्नी के मन की  बात जानने के लिए एक रात को मैंने सवाल किया,” तुम्हें इतनी छोटी जगह में सोने में तकलीफ नहीं होती?”

“ तकलीफ? तकलीफ किस बात की? अपना सुख किसी को  बाँटने में जो शाश्वत सुख की अनुभूति होती है, उसे शब्दों में वर्णन नहीं किया  जा सकता.”

इस उत्तर की मुझे कोई उम्मीद नहीं थी पत्नी से, लेकिन ऐसा विचार सुनकर मैं बहुत खुश हुआ और पत्नी की पीठ थपथपा दी. जितना बन पड़ा, हम तारिणी के कामों में हाथ बंटाते रहे और वह भी हमें किसी बात की  शिकायत का मौका नहीं दिया. हमारा वक्त एक-दुसरे के सुख-दुःख बाँटने में गुजरने लगे. भाभीजी बड़ी ही शर्मीली थी. मेरे सामने आने में हिचकती थी, लेकिन मैं कब माननेवाला था. कोई न कोई बहाना ढूंडकर रास्ता निकल ही लेता था – बात करने का

तारिणी जब हमें बात करते देखता तो चेतवानी देता अपनी पत्नी को. मुस्कान अपनी सधी होंठों पर विखरते हुए. “ दुर्गा प्रसाद बदमास आदमी है, जरा इससे सम्हल कर रहना.”

यह सुनकर मेरी पत्नी का चेहरा कभी-कभार लाल हो जाता था और एक मैं था कि तारिणी की किसी बात का कभी भी बुरा नहीं मानता था. तारिणी मेरी नज़र में साधरण इंसान से ऊपर था. मैंने सात जुलाई १९६९ को इस्तीफा दे दिया . मैं सीधे क्वार्टर आया. भाभी को बता दिया कि शाम को हमलोग लिकल जायेंगे. भाभी का चेहरा सुनते ही उदास हो गया जैसे कोई अनहोनी हो गयी हो उसके साथ. लगा कि अब फूट पड़ेगी की तब. तबतक तारिणी भी आ गया.

आते ही प्रश्न किया , ‘ क्या सचमुच जा रहे हो और आज ही ?’

मुझे छोड़ कर जाने का गम कितना था – इसे मैं कैसे बता सकता था. मेरे पास कोई उत्तर नहीं था जिसे देकर तारिणी को संतुष्ट कर सकूं. वक़्त जाते देर नहीं लगती चाहे वह दुःख की घड़ी हो या सुख की. चार बज गये . तारिणी रिक्शा ले आया. मेरी पत्नी परंपरागत अपनी छोटी बहन ( तारिणी की धर्मपत्नी ) से गले मिली – ढाढ़स दिलाई और उसकी आँखों के कोरों में अश्रु – बूँद लटके हुए थे , अपनी सधी आँचल से पोंछने लगी. भाभी देहात की जरूर थी , लेकिन उसमें एक आदर्श नारी के सभी गुण कूट-कूट कर भरे हुए थे. उसने पहले मुझे फिर अपनी दीदी ( मेरी धर्मपत्नी ) के पाँव छूकर प्रणाम की.  तारिणी और भाभी हमें मुख्य सड़क तक विदा करने आये और खड़े – खड़े शौक संतप्त नेत्रों से हमें निहारते रहे तबतक जबतक हम उनकी नजरों से ओझल न हो गये. हम मुड़-मुड़ कर पीछे देख लिया करते थे. हकीक़त यह थी कि आज हमारे भी आंसू थमने के नाम नहीं ले रहे थे.

नोट : यह मेरी आत्मकथा का एक मार्मिक अंश है. ये कई महीनों के अथक प्रयास से १५ मार्च २०१२ में पूर्ण हुआ और संशोधन १५ मार्च २०१३ को किया गया. इसी दिन ब्लॉग में भी डाल दिया गया. यह महज संयोग ही है कि इसे पूरा करने में एग्जेक्ट एक साल लग गया .

साभार व सस्नेह !

दुर्गा प्रसाद |

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