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Punishment in Class

Published by Durga Prasad in category Hindi | Hindi Story | School and College with tag Class | Exam | marks | Punishment | Teacher

Hindi Short Story from school- I was in 9th class and finding difficult to understand subject of English. But I was not even trying to study for that.

जब मुझे कान पकड़कर सारे क्लासेस में घुमाया गया

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Hindi Short Story – Punishment in Class
Photo credit: octaviolopez from morguefile.com

यह बात १९५८ की है जब मैं गोबिन्दपुर हाई स्कूल में नवीं वर्ग का छात्र था. आठवीं क्लास तक मैंने बेसिक स्कूल में पढ़ा था . वहाँ अंग्रेजी की पढ़ाई आठवीं कक्षा से शुरू हुई थी और छात्रों को अंग्रेजी वर्णमाला का ज्ञान और छोटे-छोटे वाक्यों जैसे दिस  इज  ए  कैट, दिस इज ए डॉग को लिखना-पढ़ना सिखाया गया था. प्रश्नोत्तर , एसे, लेटर, ग्रामर आदि के बारे में कुछ भी नहीं पढाया – लिखाया  गया था . जब नवीं वर्ग में अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू हुई तो फ्री इण्डिया बुक – थ्री , ग्रामर, एसे , लेटर आदि पढ़ना पड़ता था छात्रों को. मेरी समझ में कुछ भी नहीं आता था ,जब भी अंग्रेजी किताब से कोई पाठ पढ़ाया जाता था. मेरे लिए काला अक्षर भैंस बराबर था. मेरे घर में भी कोई ऐसा पढ़ा-लिखा आदमी नहीं था जो मुझे अंग्रेजी पढ़ा सके.

जो विषय विद्यार्थी की समझ में नहीं आती है , उससे उसको उचाट हो जाता है. मेरे साथ भी यही हुआ. मुझे अंग्रेजी पढ़ने में बिलकुल मन नहीं लगने लगा. मैं जान-बूझकर क्लास में अब्सेंट भी रहने लगा. पेंडोरा एंड दी बॉक्स पढ़ा के बनर्जी सर गए तो मैं केवल यही समझ सका कि पेंडोरा एक लड़की थी – उसी का नाम पेंडोरा  है. बॉक्स का अर्थ बक्शे से है जिसमें हमलोग कपड़े-लत्ते व सामानादि रखा करते हैं. कहानी  व प्रश्नोत्तर मेरी समझ के बाहर था. अर्धवार्षिक परीक्षा करीब थी. मुझे कुछ आता ही न था. इसलिए परीक्षा की तैयारी से मुझे कोई लेना -देना नहीं था. परीक्षा का समय नजदीक आ गया फिर भी मैं सीरिअस नहीं था. मैंने  अपने आप से समझौता कर लिया था कि जो होगा देखा जायेगा- अंग्रेजी में फेल तो फेल .

परीक्षा के दिन मैं समय पर पहुँच गया. कलेवर बाबू प्रश्न-पत्र लेकर क्लास में घुसे और छात्रों को सावधान करते हुए कॉपी  व प्रश्न -पत्र बाँट दिए. मुझे प्रश्न-पत्र मिला और पढ़ कर समझने का प्रयास करने लगा, लेकिन वर्णमाला एवं कुछ छोटे-मोटे वाक्यों के सिवा मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया. दो घंटे की परीक्षा थी. चुपचाप  बैठकर  समय काटना बड़ा मुश्किल प्रतीत हो रहा था. मैं अगले बेंच पर बैठा था. कलेवर बाबू आते-जाते मुझ पर नजर रखे हुए थे. जब वे आगे बढ़ जाते थे तो मैं बैठ जाता था. जब वे मेरी तरफ आने लगते थे तो लिखने लगता था. इन दो घंटों में मैंने कॉपी भर दी. जब लड़के कॉपी जमा करने लगे तो आखिर में मैं ने भी सहमे से जमा कर दिए. अधिकतर लड़के हँसते- खिलखिलाते निकले, लेकिन मेरी हालत सांप-छुछंदर जैसी थी. मेरे अलावे कोई नहीं जानता था कि मैं ने क्या लिखा है .

मैं चुपके से निकलने ही वाला था कि श्रीप्रसाद महतो, जो मेरे पास ही बैठा करता था, ने मुझसे पूछ दिया, ” दुर्गा, कैसा लिखा?”

” अच्छा” – सकुचाते हुए- सहमते हुए मैंने संछिप्त उत्तर देना ही उचित समझा.

धीरे-धीरे  वक्त बीतता गया और रिजल्ट का वक्त आ गया. पहले ही पिरियड में कलेवर बाबू एक हाथ में हाजरी खाता और दूसरे में अंग्रेजी पेपर की कापियां लेते हुए प्रवेश किये. मैं तो भांप ही लिया था कि आज कुछ न कुछ बुरा होनेवाला है. कलेवर बाबू एक-एक लड़के को पास बुलाते गए , नाम  और प्राप्तांक पढ़ते गए. मैं अपना नाम आने की प्रतीक्षा बेसब्री से कर रहा था, लेकिन आधी से अधिक कापियां  बंट जाने के बाद भी जब मेरा नाम नहीं पुकारा गया तो मेरी जान में जान आयी. मैंने सोच लिया कि अब मेरा नाम नहीं आनेवाला है. हो सकता है लाना ही भूल गए हों. लेकिन यहाँ तो खुदा को कुछ और ही मंजूर था.

कलेवर बाबू अंत में मेरा नाम बड़े ही प्यार व दुलार से पुकारे . मैं उठकर उनके करीब पहुंचा ही था कि उन्होंने मेरा दाहिना कान कसकर मचोड़ते हुए  छात्रों को संबोधित करते हुए बोल उठे,” ये देखो, दुर्गा प्रसाद का कमाल! उमापदो, हृषिकेश ,श्री प्रसाद – सब इधर आओ. देखो तो कैसा कमाल किया है, सारा का सारा कोस्चन ही उतार  दिया है, वो भी सिरियली. वाह खूब! बीस वर्षों से कॉपी की जाँच की , लेकिन ऐसा आजतक नहीं देखा.”

मेरा कान कलेवर बाबू पकडे ही हुए थे. जोर से ऐंठते हुए बोले,” इसको तो इनाम मिलना चाहिए. क्यों उमापदो, हृषिकेश,श्री प्रसाद?”

मैं विवश खड़ा सब कुछ सहन कर रहा था. इसके सिवा कोई दूसरा चारा भी नहीं था.

” चलो इसे सभी क्लास में घुमाते हैं – हेड मास्टर बनर्जी के पास ले चलते हैं.” –

कलेवर बाबू मेरा दाहिना कान पकड़ते हुए मुझे क्लास आठ से लेकर ग्यारह तक घुमाते रहे और सबों को बात बताते गए कि मैंने उत्तर  लिखने की बजाय पूरा का पूरा कोस्चन पेपर ही उतार दिया है. लड़के तो लड़के टीचर भी इसमें रूची लेने में कोई कोताही नहीं की. हेड मास्टर साहेब बुजुर्ग आदमी थे . दुनियां देखी थी. उन्होंने इस इसु को दूसरे ही तरह से लिया. ” लड़का कितना इनोसेंट है कि जब नहीं  अनसर  सुझा तो कोस्चन ही उतार दिया. कलेवर बाबू, लड़का बेदम हो गया है रोते-रोते, बहुत हो गया, अब इसे मुहँ-हाथ धुलवाकर घर भेजवा दीजिए” – बनर्जी साहेब एक साँस में आदेश देकर अपने चेंबर में चले गए. मथुरा के साथ मुझे घर भेज दिया गया.

घर तो आ गया, लेकिन मन-मष्तिष्क अपमानित होने से इतना दुखित था कि कुछ भी काम में जी नहीं लग रहा था. कान की पीड़ा बेचैन कर रही थी सो अलग. मेरे मन में उथल-पुथल मची हुई थी कैसे इस अपमान का बदला लिया जाय. तरह-तरह की दुश्चिंता  के भाव मन में उठ रहे थे. अंत में मैंने संकल्प लिया कि पूरी मेहनत व ईमानदारी से पढूँगा ओर आने वाली वार्षिक परीक्षा अच्छे अंको से पास करूँगा . अंग्रेजी को जड़ से मजबूत करूँगा , चाहे इसके लिए मुझे कितनी भी कुर्बानी क्यों न देनी पड़े. रात भर मैं इसी शोच में जागता रह गया. योजना बनाई कि अंग्रेजी के चलते अपमानित होना पड़ा है, इसलिए सबसे पहले इसी पर ध्यान केन्द्रीत करना है. मैं ने मुख्य-मुख्य पुस्तकों की शूची तैयार कर ली.

शुबह होते ही दादी से सौ रूपये लिए. उस समय पुराना बाज़ार धनबाद के स्टुडेंट्स स्टोर में सभी विषय की किताबें मिलती थीं. मैंने एक भार्गव डिक्सनरी, गोल्डन इंग्लिश ग्रामर , हाउ टू ट्रांसलेट इंटू इंग्लिश, हाउ टू राइट करेक्ट इंग्लिश, फ्री इण्डिया रीडर बुक थ्री का नोट हिन्दी अर्थ के साथ.सभी किताबें लेकर शाम को घर आया और पढ़ने का रूटीन बना लिया. फिर क्या था धीरे- धीरे पढ़ाई आगे बढ़ती रही. अपने वर्ग में उन लड़कों का साथ छोड़ दिया जिन्हें पढ़ने – लिखने में कोई रुची नहीं थी. मैंने श्री प्रसाद जो बहादुरपुर(बाग्सुमा) से पैदल ही स्कूल आया करता था तथा पढ़ने- लिखने में अब्बल था, को अपना दोस्त बना लिया और मिलकर पढ़ने लगा. ग्रामर और ट्रांस्लेसन नियमितरूप से बनाने लगा. शनैः शनैः सब कुछ समझने-बुझने लगा. जितनी कहानियां एवं कवितायेँ थीं सब का सारांश याद कर लिया. अंग्रेजी का वर्ड स्टाक बढ़ाया तथा शब्दों के स्पेल्लिंग पर विशेष ध्यान दिया. उन सभी नियमों को आत्मसात किया जिनसे अंग्रेजी शब्दों की रचना होती हैं.

श्री प्रसाद खाली पिरिअड में भी पढ़ा करता था. अब हमलोग एक ही विचार  के दो लड़के हो गए . हम साथ- साथ समझने- बुझने लगे. वार्षिक परीक्षा की तैयारी हमने मिलकर की. परीक्षा हुई . मैंने सभी अंग्रेजी प्रश्नों का उत्तर सही-सही लिखा. अबतक मुझे मालूम भी होने लगा था कि क्या सही उत्तर है और क्या गलत. कड़ी मेहनत, ईमानदारी, नियमित पठन -पाठन एवं अभ्यास ने रंग लाया. फलस्वरूप वार्षिक परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ. कलेवर बाबू ने जब मेरा अंग्रजी का मार्क्स देखा तो उसे यकीन ही नहीं हुआ. खैर, कलेवर बाबू के पास अब मेरे ऊपर छींटाकशी करने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. हेड मास्टर बनर्जी साहेब ( हेडमास्टर ) ने अंग्रेजी कॉपी की जांच की थी. इसलिए मार्क्स पर संदेह करना मुनासिब नहीं था.  कलेवर बाबू का मुँह लटका हुआ था. फिर भी वे मेरे पास आये और गले लगा लिए. उनको अपने किये पर पश्चाताप हो रहा था .यह बात उनके हाव-भाव से पता चल रही थी.

मैंने उनके चरण छूकर प्रणाम किया और कहा,” सर , आप कान पकड़ कर मुझे नहीं घुमाते तो मैं कभी नहीं सुधरता. मैं आप का बहुत आभारी हूँ.”

वे मुझे हाथ पकड़कर बनर्जी साहेब के पास ले गए और बोले,” सर, यही दुर्गा प्रसाद है जिसने अंग्रेजी में अब्बल अंक लाया है. यही नहीं सब्जेकटली  पास भी हुआ है. ”

“हाँ, हाँ , मैं जानता हूँ.” वैमनस्य से बनर्जी साहेब ने संछिप्त सा उत्तर दिया.

बनर्जी साहेब कलेवर बाबू के स्वाभाव से भली-भांति परिचित थे. हमारे वक्त में खुशी के क्षण को लोग हिप-हिप हुर्रे उद्घोषित करके  हृदय के उदगार जाहिर किया करते थे. ऐसी परम्परा थी. हम लड़के भी क्लास से निकलते वक्त ” हिप-हिप हुर्रे,” करते हुए बाहर मैदान में निकले. श्री प्रसाद को मेरी नजरें खोज रही थी. मैं उसे धन्यवाद देना चाहता था ,क्योंकि मेरी सफलता में उसका बड़ा योगदान था. अगर वह न होता तो मैं इतने अच्छे अंकों से कभी उत्तीर्ण नहीं होता. सच पूछिए तो मेरे लिए दिवास्वप्न था कि मैं इतने कम दिनों में अपने आप को सुधार पाता. उसके बाद तो क्लास में जो मेरी धाक जमी तो वह कभी नहीं उखड़ी. मैं ही अकेला चश्मदीद गवाह था इस पूरे बदलाव का. मैं ही जानता था कि मैं ने कितनी रातें ,कितने दिन पलकों में काटें हैं. मंजिल को पाना इतना आसान नहीं होता. उसके लिए आदमी को कड़ी मेहनत, ईमानदारी और दृढ़ संकल्प की आवश्कता होती है. मेरी कहानी यहीं खत्म नहीं हुई, अपितु यह आगे भी उसी जोश व खरोश के साथ जारी रही – परिश्रम की वो लड़ी कभी नहीं टूटी. जज्वा व जुनून अनवरत जारी रहा. ईमानदारी कायम रही.संकल्प को डिगने नहीं दिया गया चाहे विपरीत परिस्थिति ही क्यों न हो.

दसवीं कक्षा में किताबें बदल गईं. अंग्रेजी बुक पोर्सन में  Free India Reader – Book – IV, The Stories From The East And The West, The Good And The Great. कुल तीन किताबें निर्धारित थीं. इन्हें दशवीं एवं ग्यारहवीं दोनों में पढ़ना होता था. प्रथम पुस्तक पेपर  सेकेण्ड और दूसरा एवं तीसरा प्रथम पेपर में सन्निहित थीं. सिलेबस आसान नहीं था अंगेजी का. मेट्रिक में ज्यादातर लड़के अंग्रेजी में ही असफल होते थे.

मैं दुने उत्साह से पढ़ाई शुरू कर दी. खाली समय में अपने सहपाठियों को अंगेजी बुक पोर्सन पढ़ाने लगा. यह एक अनहोनी बात हो गई कि जिस क्लास में मैं पढ़ता था उसी क्लास के छात्रों को पढ़ाने लगा. यह बात फैलने में देर नहीं लगी. सबसे मजेदार बात यह थी कि स्कूल में को-एजुकेसन था. बाज़ार एवं बी.एम.पी.की बीस- पच्चीस लड़कियां हमारे साथ पढ़ती थी. मेरी ओर उनका झुकाव होना स्वाभाविक था, लेकिन किसी में इतना बोल्डनेस नहीं था कि वह मुझसे बात कर सके. शहर के लड़के मुझसे पूछना अपनी तोहिनी समझते थे. जो लड़के पूछते थे, वे सब के सब देहात के थे.

श्रीप्रसाद महतो और मैं अंग्रेजी के एक-एक पाठ बड़े ही ध्यान से पढ़ते थे तथा प्रश्नोत्तर के साथ -साथ वर्ड मीनिंग तक यादकर लेते थे. आपस में स्पेलिंग भी एक दूसरे से पूछकर पक्की कर लेते थे. यह तैयारी क्लास में पाठ पढाये जाने के पहले ही पूरा कर ली जाती थी, ताकि पाठ पढाते वक्त समझने में कोई कठिनाई न हो. यह सुझाव श्रीप्रसाद का था. श्रीप्रसाद देहाती लड़का था ,लेकिन पढ़ाई के मामले में शहरी लड़कों का कान काटता था. उसकी यही विशेषता ने मुझे उसकी ओर आकर्षित किया था, जो ग्यारहवीं के अंतिम दिनों तक बना रहा.

उमापदो दां ,जो अंग्रेजी में सर्वोच्च अंक लाता था , मेरे को सरपास करने नहीं देना चाहता था. मैं इस बात को भांप गया था तथा तैयारी में किसी तरह की कमी रखना नहीं चाहता था. दसवीं कक्षा के सभी विगत प्रश्नों की सूची तैयार कर ली थी. हम दोनों ने आपस में पोर्सन बाँट लिए थे . हमने शनैः शनैः सभी संभावित प्रश्नों का हल करना ही नहीं सीखा बल्कि उन पर हमारा नियंत्रण भी हो गया. जरा सा भी भूल होने की  गूंजाइस नहीं रही तो भी हम निश्चिन्त बैठे नहीं रहे, हम समय-समय पर रिवाइज करते रहे और आपस में पूछ-ताछ भी करते रहे. परिणाम इतना अच्छा निकला कि हमारे मन-मष्तिस्क से परीक्षा का डर रफ्फू चक्कर हो गया. परोक्ष रूप से एक और भी लाभ हुआ कि हम उसी तौर तरीके से अन्य विषयों की भी तैयारी करने में जूट गए थे.

जब हाफ यर्ली एग्जाम हुई तो परिणाम चोंकानेवाला आया. क्लास में श्री प्रसाद थर्ड और मैं फिफ्थ हो गया. वार्षिक परीक्षा में हम क्रमश थर्ड एवं फोर्थ हुए. अब मेरे बारे में छात्र एवं शिक्षक पूरी तरह आश्वस्त हो गए थे कि मैं किसी न किसी दिन अपने वर्ग में अब्बल न हो जाऊं . ग्यारहवीं की प्री-टेस्ट प्रोग्राम निकल गया. मैंने जी तोड़ मेहनत की. परीक्षा बड़ी ही सावधानी से दी. जिस दिन परीक्षा फल निकलने वाला था, मैं किसी घरेलू कारण से स्कूल नहीं जा सका था.

दोपहर को मेरा दोस्त एवं सहपाठी दौड़ता हुआ मेरा घर आया और मुझे पकड़कर किनारे ले गया. बोला,” दुर्गा, तुम टेस्ट में फर्स्ट कर गए हो. अभी- अभी चार्ट देखकर आ रहा हूँ. मिठाई खिलाओ. ”

“मुझे बेवकूफ मत बनाओ.” – मैंने कहा.

“यकीन नहीं होता मेरी बातों पर, तो खुद जाकर देख लो.” – मथुरा ने अपनी बात रखी.

हम उसी घड़ी चल दिए . स्कूल के नोटिस बोर्ड के पास कई लड़के जमे हुए थे. मुझे देखते ही एक स्वर में बोल उठे,” दुर्गा, प्री-टेस्ट में तुम फर्स्ट हुए हो. बनर्जी साहेब तुम्हें ढूंड रहें हैं बेसब्री से.”

देखा हल्ला-गुल्ला सुन कर बनर्जी साहेब हमारी ओर ही आ रहे हैं. उनकी नज़र मेरे ऊपर ज्यों ही पड़ी, उसने मुझे पास बुला लिए और बोले,” हैव यू सीन योर रिजल्ट?”

“नो सर.” –  मैंने जवाब दिया.

” यू हैव स्टूड फर्स्ट इन योर क्लास, वेल डन, माई बॉय!” कहकर उन्होंने मेरी पीठ थपथपा दी.

मैंने उनके चरण छूने ज्यों झुके कि उन्होंने मुझे पकड़ लिया और अपने सीने से लगा लिया . आज बनर्जी साहेब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी यादें अब भी जीवंत हो उठती है और मुझे जब-जब वो घड़ी याद आती है मैं रोमांचित हो जाता हूँ. यही नहीं मुझे ऐसा आभास होता है कि वे मेरे पास ही खड़े हैं कुछ कहने के लिए . वे असमय ही हमें छोड़ कर चले गए एक ऐसी जगह जहाँ से फिर कोई लौट कर नहीं आता.

आज दिनांक २०.०७ २०१२ को यह कहानी पूरी हुई. लिखने में चार दिन लगे.

दुर्गा प्रसाद, एडवोकेट

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