एक समय की बात है। एक शहर में एक रिक्शावाला राजकुमार अपने लड़के सरजू के साथ रहता था। राजकुमार हर दिन रिक्शा चलाकर अपना जीवन चलाता था। और सरजू पास के एक स्कूल में पढता था। एक दिन राजकुमार ज्यादा मेहनत से बहुत थक गया था। उसने सरजू को आवाज लगाई ,”सरजू!!!! ओ सरजू !!! अरे कहाँ मर गया? ”
सरजू बोला, ”आया बापू !!!”
राजकुमार गुस्से में बड़बड़ा रहा था। तभी सरजू आ गया और बोला, ”बापू , कल परीक्षा है। थोड़ी पढाई करनी है। ”
राजकुमार गुर्राया ,” हुंह ,बड़ा आया ,पढाई करने वाला। पढ़ लिख कर क्या कलक्टर बनेगा ?”
सरजू बापू के पैर दबाने लगा।
सरजू की माँ की मृत्यु उसके जन्म के दो साल बाद ही हो गयी थी। अब सरजू सात साल का एक समझदार लड़का था। वो अपने बापू का पूरा ध्यान रखता था। बापू के पैर दबाते हुए सरजू बोला “बापू! तुम क्या कह रहे थे? कलक्टर ? ये कौन होता है बापू?
पैर दर्द में जब कुछ आराम आया तो राजकुमार शांत हुआ। बापू बोले, ”अरे पूरे जिले का मालिक होता कलेक्टर। वो जो कहता है वाही होता है शहर में। ”
सरजू हर्ष से चीख पड़ा, “अच्छा बापू!! क्या ऐसा होता है? और बताओ न बापू, कलक्टर कैसे बनते हैं?” सरजू गिड़गिड़ाया।
“अरे चुप कर अब सोने दे मुझे, बड़ा आया कलेक्टर बनने। कुछ ही देर में छोटा सा कमरा राजकुमार के खर्राटों से गूँजने लगा।
किन्तु सरजू की नन्ही-नन्ही पलकें कलेक्टर बनने के सपने में उलझ कर रह गईं। कुछ समय में वो भी सो गया। सरजू को पढाई मेँ बहुत रूचि थी। किन्तु उसके नन्हे कन्धों पर घर और बापू दोनों को सँभालने का जिम्मा भी था। उसके छोटे से मन में कलेक्टर बनने की इच्छा घर कर गई थी। लेकिन, कैसे उसका ये स्वप्न पूरा होगा ये चिंता उसे व्यथित कर देती थी। कहते हैं कि भगवान सबके मन की बात सुनते हैं। सम्भवतः सरजू के स्वप्न को भी उन्होंने आकार देने की सोची।
खाली समय में सरजू घर के पास बने एक पार्क के किसी कोने मेँ बैठकर कुछ सोचता रहता था। हर दिन की तरह सरजू पार्क मेँ चुपचाप बैठा था। तभी उसके पास बेंच पर एक अधेड़ आदमी आकर बैठ गए। श्वेत वस्त्र एवं श्वेत केश में मानो ब्रह्म देव ही धरा पर उतर आये हों। किन्तु सरजू को क्या,वो तो अपनी ही धुन में मग्न था। “ पुत्र ! क्या तुम तनिक मेरी सहायता करोगे?” अधेड़ पुरुष बोले।
हड़बड़ा कर सरजू बोला, ”हाँ ,हाँ अवश्य सहायता करुंगा। क्या हुआ है आपको ?”
“पुत्र मेरे पैर में एक कांटा लग गया है, जो कि अत्यंत कष्टकर है। मुझसे तो निकलेगा नहीं, तू ही निकाल दे। तू जो कहेगा मै वो ही तुझे दूँगा। ” अधेड़ पुरुष बोले।
तुरंत सरजू उनके चरणों में बैठ गया और दाहिने पैर को, जिसमे से रक्त बह रहा था, उसे गोद में रखकर, कांटे को निकालकर फ़ेंक दिया। रक्त और तीव्रता से बहने लगा। क्या करे सरजू समझ ही न सका। जल्दी से उसने अपनी कमीज उतारकर उस पुरुष के पैर में बाँध दी। तब जाकर रक्तस्राव बंद हुआ। किन्तु ये क्या, जब सरजू उनके समीप बैठा तो उनके मुख पर मुस्कान एवं नेत्रों में पानी था। सरजू आश्चर्यचकित रह गया और बोला, ”बाबाजी ! आप रो रहे हैं अथवा हंस रहे हैं? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है।”
स्नेह से बाबाजी ने उसे गले लगा लिया।बाबाजी बोले ,” मै तुमसे अत्यधिक प्रसन्न हूँ। सात वर्ष के बालक से कोई भी इतनी आशा नहीं कर सकता है। तुम जो चाहो मुझसे बेझिझक मांग लो। ”
“तो ठीक है, आप मुझे कलेक्टर बना दो। मेरी बस ये ही इच्छा है कि मै कलेक्टर बनूँऔर अपने बापू की सेवा करूँ। ” सरजू दुलार से बोला।
बाबाजी बोले ,”जैसा तुम चाहो “।
सायंकाल की लाली ,रात में बदलने लगी थी। अचानक सरजू अपने घर की ओर भागा और बोला ,”मेरे बापू घर आ गए होंगे और वो मेरी राह देख रहे होंगे।”
” राजकुमार !! ओ राजकुमार !! तुम्हारे गाँव से चिट्ठी आई है ।” डाक बाबू का स्वर प्रातःकाल ही गूँज उठा।
असमंजस में राजकुमार बाहर आया, ”मेरे गाँव से? लेकिन मेरा कोई रिश्तेदार तो गॉव में है नहीं। ” पत्र लेकर वो पढ़ने लगा, क्योंकि वो भी पांचवी पास था। पत्र में सरजू की पढाई के विषय में लिखा था। किसी अनजान व्यक्ति ने सरजू के कलेक्टर बनने तक की सारी पढाई कराने का बीड़ा उठाया था। उसमे ये भी स्पष्ट लिखा था के ये काम वो सेवा के लिए कर रहे हैं। प्रतिदान में उन्हें कुछ नहीं चाहिए। पत्र पकड़कर राजकुमार सोच में पड़ गया। तभी सरजू आया और उसने उन्हें सारी घटना विस्तार से बताई। अब राजकुमार की सनझ में आ गया कि ये पत्र उन्ही सज्जन पुरुष का है। सज्जन क्या वो तो सरजू के लिए भगवान सामान है।
बस फिर क्या था। सरजू का शहर के एक बड़े स्कूल में नाम लिखाया गया। एक मास्टरजी, जिन्हे राजकुमार स्कूल ले जाया करता था, उन्होंने इस सब में राजकुमार की बड़ी सहायता की। उस सज्जन पुरुष को सरजू ने बाबूजी का नाम दिया। बाबूजी की धन रूपी सहायता एवं आशीर्वाद से सरजू की पढाई आरम्भ हो गई। इस तरह सरजू के सपने को एक नया आयाम मिला। कलेक्टर बनने की धुन में वो रात दिन एक कर पढाई करने लगा।
इसी तरह साल पर साल बीतते गए। सरजू स्कूल से लेकर कॉलेज तक की क्लास में प्रथम श्रेणी में पास होता रहा। बस अब कुछ दिन और बाकी थे सरजू के सपने को पूरा होने में। अब वो कलेक्टर की परीक्षा की तैयारी में लग गया। सरजू के जीवन का सपना पूरा होने ही वाला था। जी-जान लगा दी उसने इस परीक्षा के लिए। परीक्षा देने से पूर्व ही उसने ये प्रण किया था कि, “जैसे ही मै कलेक्टर बनूँगा, अपने ईश्वर समान बाबाजी के चरण पकड़ लूँगा। उनकी और बापू की जीवन भर सेवा करूँगा। बाबूजी की यदि मैंने जीवन भर भी सेवा की तो भी मै उनके ऋण से उऋण नहीं हो पाउँगा।
और वर्षों की तपस्या के बाद आखिर वो दिन भी आ गया। उस दिन सुबह- सुबह बंटी पेपरवाले ने राजकुमार के घर के बाहर शोर मचा दिया, ” अपना सरजू कलेक्टर बन गया, अपना सरजू कलेक्टर बन गया। अरे राजकुमार भैया !! जल्दी से गली में लडू बाँटो। ”
सरजू दौड़कर आया। पेपर में अपनी फोटो और परिणाम में अपना नाम देखकर झट से उसने अपने बापू के पैर छू लिए। नम आँखों से सरजू बोला, “बापू इन आँखों में ये सपना देने वाले आप ही हो। आज मै उन महापुरुष से मिलने भी जाऊंगा जिन्होंने मेरा सपना साकार किया है। ”
बापू की आँखें हर्ष से छलक आईं। पुत्र को सीने से लगाकर बोले ” हाँ बेटे ,अवश्य जाओ। वो हमारे लिए ईश्वर समान हैं। ”
बाबाजी के घर का किसी तरह पता लगाकर, सरजू वहाँ पहुँचा। वो घर नहीं अपितु एक महल जैसा लग रहा था। उसने चौकीदार से बाबाजी के बारे में पूछा , तो वो बोला, ”कौन बाबाजी? उनका स्वर्गवास हुए तो १०-१२ साल हो गए। ”
“उफ़ ! ये क्या बाबाजी ? अब कैसे मै उनकी सेवा करूँगा। कैसे उनको धन्यवाद दूंगा? ये क्या हो गया?” सरजू अथाह दुःख से बड़बड़ाने लगा। आंसुओं की निर्मल धारा उसके गालो को अनजाने ही भिगोने लगी।
“सरजू ! ओ सरजू ! ” किसी ने आवाज लगाई। ” मै श्री ब्रह्म कुमार जी का वकील हूँ। तुम सरजू ही हो ना ?” वे पुनः बोले।
सरजू ने जल्दी से सर हिलाया ” जी हाँ , मै ही हूँ सरजू। मै अपने बाबाजी से …। “कहकर वो फूट फूट कर रोने लगा।
सुकुमार जी ने उसे किसी तरह चुप कराया और बोले, ” देखो, श्री ब्रह्मकुमार जी प्रति माह तुम्हें पढाई के लिए चेक भेजते थे। अपने अंतिम समय मैं तुम्हारी पढाई के हिसाब से सारे चेक उन्होंने हस्ताक्षर कर दिए थे । मुझसे कहा था कि उस बच्चे को कलेक्टर बनना है। पैसों की कोई कमी नहीं होनी चाहिए। उन्ही की आज्ञा से मै तुम्हें हर महीने एक चेक भेजा करता थाा। अब ये अंतिम चेक बचा है, तुम चाहो तो कैश करा लो। ”
सुकुमार जी से चेक लेकर सरजू फिर से बिलख-बिलख कर चेक को सिर से लगा कर रोने लगा। उसे समझ में नहीँ आ रहा थे कि वो क्या करे, कैसे बाबाजी को धन्यवाद दे, औए कैसे उनका ऋण चुकाए ? कुछ देर बाद सुकुमार जी को प्रणाम कर वो भारी मन से अपने घर की ओर चल पड़ा। वो घर के पास वाले पार्क में उसी बेंच पर सिर रखकर रोने लगा, मानो आज फिर से वो बाबाजी से आशीर्वाद माँग रहा हो।
आज सरजू अपने ही शहर का कलेक्टर है। पूरा शहर उसी के हिसाब से चलता है। वो और उसके बापू सरकारी आवास में रहने लगे। आज भी सरजू सायं काल में उसी पार्क में उसी बेंच पर जाकर बैठता है, जहाँ पर कभी उसके बाबाजी बैठे थे।
कोई पूछे तो वो ये ही कहता है, कि यही मेरा मंदिर, यही मस्जिद और यही मेरा गुरुद्वारा है। आज भी वो अंतिम चेक उसके पूजा घर में रखा है,जो उसके और उसके बाबाजी के अटूट रिश्ते का प्रमाण है।
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