This Hindi short story shows today’s politicians and their nature which changes according to time & place. But the common public has also some power
अधिकार का प्रश्न
बस यात्रियों से खचाखच भरी हुई थी । प्राईवेट थी, इस कारण भी अधिक संख्या से अधिक यात्री भर लिये गये थे । मैं भी, भाग्यवश, बस में सीट प्राप्त नहीं कर सका था । सीटों के बीचों-बीच जो स्थान मुश्किल से आने-जाने वालों के लिये रखा जाता है, वहां भी लोग छत से लगे डण्डे को पकड़कर खड़े थे । मैं आगे से चढ़ा था, ड्राईवर के पास ही झुककर, यूं कहना चाहिये कि, ड्राईवर के सर पर चढ़कर खड़ा था । बूढ़ा आदमी, वैसे भी ज़्यादा देर खड़े रहना कठिन होता । मगर मेरे लिये तो और भी असहनीय था क्योंकि मैं सांस का मरीज़ हूं । करता तो क्या करता, अपने को धैर्य बंधाकर वहीं खड़ा रहा कि सम्भव है कोई तरस खाकर स्थान दे दे । हालांकि ऐसी भीड़-भाड़ की अवस्था में किसी भी अपरिचित से यह आशा नहीं की जा सकती थी । परन्तु कभी-कभी अनहोनी हो जाती है ।
ड्राईवर, जो पहले से ही जला-भुना बैठा था, क्रोधित होकर मेरे से बोला, “अबे ओ बुड्ढे, अपने पैरों पर तो खड़ा हो, मेरे ऊपर चढ़ा आ रहा है ! गाड़ी कैसे चलाऊँ ?”
मैं बहुत शर्मसार हुआ कि बड़े-बूढ़ों से यह व्यवहार ! परन्तु करता भी तो क्या ! बड़ी नम्रता से बोला, “भैया क्या करूं, देखते तो हो कितनी भीड़ है ! और दो घंटे से कोई गाड़ी नहीं आई ।”
“तो इसमें मेरा क्या कसूर ? नहीं आई तो नहीं आई, इसका मतलब यह तो नहीं कि तू मेरे सिर पर चढ़ जाये ! थोड़ा पीछे हटकर खड़ा हो । नहीं तो बोनट पर ही बैठ जा ।”
मैंने झट से बोनट पर कब्ज़ा जमा लिया ताकि मुझसे पहले कोई और वो स्थान ग्रहण न कर ले । बोनट बहुत गर्म था, परन्तु मैं यह अवसर नहीं खोना चाहता था । पहलू बदल-बदल कर ढीठों की न्याई डटा रहा । और बस चल पड़ी । परन्तु अभी पचास गज़ की दूरी ही तय कर पाई थी कि सामने से दो व्यक्ति, खादी के वस्त्र पहने और गांधी कैप लगाये, रिक्शे से नीचे उतर रहे थे, और बस को रोकने का प्रयास कर रहे थे । ड्राईवर ने रिक्शे के बगल में गाड़ी खड़ी कर दी और बड़ी नम्रता से कहा, “नेता जी, आने में बहुत देर कर दी, आगे से ही आ जाईये ।”
और वो अगले दरवाज़े से ऊपर चढ़ आये । सामने की सीट पर दो नेत्रहीन व्यक्ति बैठे थे । ड्राईवर ने कड़क कर कहा, “बाबा उठो, ये नेताजी की सीट हैं ।”
उनमें से एक व्यक्ति बोला, “मैं तो अंधा हूं भैया, मुझे क्यों सता रहे हो ?”
“अरे भाई यह सीट विधायकों के लिये है , और सीट के पीछे लिखा भी है ।” और दोनों गांधीवादियों ने उसकी हां में हां मिलाई, “यह देखो, इतने बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है ।”
अब मेरी भी नज़र सीट के पीछे पड़ी जिसपर लिखा हुआ तो अवश्य था, परन्तु इतना घिसा-पिटा कि कुछ पढ़ा नहीं जाता था, सिवाय ‘वि…….. के लिये’ के, जो शायद विकलांगों के लिये था ।
वो नेत्रहीन व्यक्ति बोला, “अन्धा तो हूं, पर अक़्ल का अंधा नहीं । विकलांगों के लिये तो सीटें आरक्षित होती हैं, परन्तु विधायकों के लिये नहीं । और ये आगे की सीटें तो सभी जानते हैं, विकलांगों के लिये ही होती हैं ।”
मैं असमंजस में था कि विधायकों के लिये सीटों का आरक्षण तो पहली बार सुना है । यात्रियों की प्रतिक्रिया देखनी चाहिये परन्तु बहुत समय तक सभी चुप्पी साधे रहे तो मैं कुछ कहने को हुआ कि कण्डक्टर ने अपनी वर्दी का रौब झाड़ते हुये क्रोध से कहा, “उठता है या उठा कर नीचे फेंकूं?”
तभी दूसरा अंधा बोल पड़ा, “नीचे फेंकेगा? तेरे बाप का राज है? टिकट ले रखा है, मुफ़्त में नहीं बैठे हैं ।”
अब मुझसे भी नहीं रहा गया । सुलह-सफ़ाई कराते हुये बोला, “भई झगड़ा मत करो । अंधा है बेचारा, नेताजी को कहीं और बिठा दो ।”
परन्तु नेताजी तथा उनके साथी नेतागिरी के गर्व में चूर थे । “कहीं और क्यूं बिठा दे, मज़ाक है क्या ? आपको भी पता होना चाहिये कि आगे की दो सीटें विधायकों के लिये आरक्षित होती हैं ।”
“मुझे तो ज्ञात नहीं, परन्तु विकलांगों के लिये हो अथवा विधायकों के लिये, आपको तो कुर्सी से मतलब है न – विधायक की हो अथवा विकलांग की, इससे क्या फ़र्क पड़ता है? क्षमा करके आप किसी और स्थान पर बैठ जायें ।”
मेरे शब्द सुनकर सभी यात्री खिलखिलाकर हंस पड़े, और कन्डक्टर ने झेंपकर उन दोनों नेताओं को अपनी सीट पर बिठा दिया । इसके साथ ही बस चल पड़ी । और बस के चलते ही मैं भी आराम से बैठ गया क्योंकि तब तक बोनट भी काफ़ी ठंडा हो चुका था, और मेरी सहनशक्ति में भी कुछ वृद्धि हो गई थी ।
मैं ऋषिकेश से बद्रीधाम की यात्रा पर जा रहा था, और निपट अकेला था क्योंकि पत्नी का कुछ समय पूर्व ही निधन हो चुका था । उसके बिना मेरी भी दशा विकलांगों की सी हो गई थी क्योंकि शास्त्रानुसार पत्नी को अर्द्धांगिनी कहा गया है । फिर सोचने लगा कि सीट पर मेरा भी उतना ही अधिकार है जितना औरों का । अक्षर तो मिटा हुआ था, इससे तो बहुत से शब्द बन सकते थे, जैसे – विवाहितों के लिये, विधवाओं के लिये, अथवा विद्यार्थियों के लिये । फिर ये विधायक ही अपना हक क्यों जता रहे हैं ! सत्ता तो जनता के हाथ में है ! यह अजब तरह का जनतंत्र है – विधायक; जो जनता के, एक तरह के सेवक माने जाते हैं, सीटों के आरक्षण के लिये अपना दावा करें, और जनता; जिसने उन्हें सेवा के लिये चुना है, चुपचाप देखती रहे !
परन्तु देश स्वतंत्र हुये भी बीसियों साल बीत चुके, लेकिन किसी ने भी आरक्षण वापस लेने की बात नहीं की । सदा अधिक से अधिक आरक्षण लेने की बात चलती है । आरक्षण तो केवल दस वर्ष के लिये था, उम्र भर के लिये नहीं । और वह भी केवल दलितों के लिये । ख़ैर, दलित वर्ग हो अथवा अल्प-समुदाय, विकालंग हो अथवा विधायक, अब सभी अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयास करें । आज की आर्थिक दशा में समाज इनका और बोझ उठाने लायक नहीं रहा ।
इन्हीं विचारों में नरेन्द्रनगर, देवप्रयाग निकल गये । बस रुकी भी और चल भी दी । मुझे चाय की बड़ी तलब हो रही थी कि श्रीनगर आ पहुंचे । बस खड़ी हुई और मैं उतरकर सामने चाय की दुकान से चाय लेकर वहीं बैठकर पीने लगा । मैं चाय पी ही रहा था कि एक टोपीधारी नेता ने आकर चाय वाले को दो स्पेशल चाय बनाने का ऑर्डर दिया । दुकानदार चाय बनाने लगा और मैं पैसे देकर बस की ओर बढ़ा । इससे पहले कि मैं बस का डंडा पकड़कर पायदान पर पैर रखता, वो टोपीधारी दोनों हाथों में गरम-गरम चाय के गिलास पकड़े, मुझे पीछे धकेलता हुआ बस में चढ़ने का प्रयास करने लगा, परन्तु संतुलन खो बैठा, और एक चाय छलक कर उसके हाथ पर आ पड़ी और गिलास मेरे कुर्ते पर । वो अपने को संभालने की कोशिश में दूसरा गिलास भी छोड़ने पर मजबूर हो गया । दोनों गिलास सड़क से टकराये और चूर-चूर हो गये ।
इससे पहले कि मैं उसे कुछ कहता, वो उल्टे मुझपर ही बरस पड़ा, “अरे बुड्ढे, न चढ़ता है न चढ़ने देता है । रास्ता रोके खड़ा है । गिरा दी न चाय, अब चुका इनके पैसे ।”
मैं भी भड़क उठा और बोला, “अबे ओ नेता के चमचे, कपड़े तो मेरे ख़राब कर दिये और चिल्ला भी मुझपर ही रहा है ! यह नेतागिरी मुझपर नहीं चलेगी । अगर विधायक या उसका चमचा होता तो किसी गाड़ी में घूम रहा होता, बसों में धक्के न खाता ।”
ख़ैर, चाय के पैसे तो उसे देने ही पड़े, मुझे उसपर चिल्लाना बहुत मंहगा पड़ा । दिल का मरीज़ तो हूं ही, छाती पकड़कर वहीं बैठ गया ।
मेरे लिये नई मुसीबत खड़ी हो गई । ड्राईवर ने अपनी सीट पर बैठे-बैठे उस टोपीधारी का पक्ष लिया और कहने लगा कि आप परेशान हैं तो किसी दूसरी बस पर आ जाईये । मैं तो उसका विरोध क्या करता, उस नेत्रहीन व्यक्ति को मौका मिल गया । झट से खड़ा होकर बोला,
“दूसरी बस पर आ जायें, क्या मज़ाक है ? एक तो साले हराम की खाते हैं, दूसरे यात्रियों पर चिल्लाते हैं । कोई पूछे इनसे कि क्या इनके पास टिकट भी है?”
ड्राईवर बोल उठा, “तुम कौन होते हो बीच में टांग अड़ाने वाले ? हम किसी से टिकट लें या न लें, तुमसे मतलब ?”
पीछे से एक युवक ने चिल्लाकर कहा, “हां हां, चार मुफ़्तख़ोरे और चढ़ा लो कौन पूछने वाला है !”
यह सुनते ही ड्राईवर बस से नीचे उतरकर खड़ा हो गया और बोला, “यह बस आगे नहीं जायेगी ।”
किसी ने पूछा क्यों तो जवाब मिला कि बस ख़राब हो गई है ।
मैं तो कुछ बोला नहीं, मगर मेरे पक्ष में बोलने वाले बहुत हो गये और चिल्लाने लगे, “इन टोपी वालों को नीचे उतारो जो फ़साद की जड़ हैं ।” मैं सुविधा पाकर फिर अपने स्थान पर आ बैठा, और गहरी-गहरी सांसे लेने लगा । मुझे दिल का दौरा पड़ा था ।
मुझे सीना पकड़कर चुपचाप बैठे देख, ड्राईवर और कण्डक्टर के भी हाथ-पैर फूल गये । यात्रियों को अपने विरुद्ध पाकर नेता भी सहानुभूति दिखाने आगे बढ़े, और मुझे अपनी सीट पर बिठाने लगे, “अरे, यह क्या हो गया ! आप बीमार हैं, शान्ति से बैठ जाईये । आप हमारे बुज़ुर्ग हैं, हम आपको आपके घर तक पहुंचाकर आयेंगे ।” अब सभी यात्री शांत हुये और अपने-अपने स्थान पर जाकर बैठ गये, तथा दोनों नेता बोनट पर पैर रखकर खड़े हो गये।
मैंने दिल में सोचा कि जनता की आवाज़ में कितनी शक्ति है! हम चाहें तो अपने चुने हुये नेताओं को कुर्सी से खींचकर नीचे गिराने का अधिकार भी प्राप्त कर सकते हैं । इससे देश का कितना कल्याण होगा ! परन्तु संविधान में तो ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है । इसके निर्माताओं ने तो शायद इसके बारे में सोचा तक नहीं होगा कि इसकी भी ज़रूरत पड़ सकती है । उसके अनुसार प्रभुसत्ता का अधिकार जनता के चुने हुये सदस्यों का ही है, हालांकि वो इसे जनता से ही प्राप्त करते हैं । मर्ज़ी से अथवा बरजोरी, वो अधिकार तो उन्हें देना ही पड़ेगा । जैसे शराब खींची जाती है, वो लोग उस अधिकार को पांच साल के लिये बोतलों में भर लेते हैं और उसके नशे में चूर, जनता को दुखी करते फिरते हैं । और जब पांच साल बीत जाते हैं, बोतलें दोबारा भर ली जाती हैं, ताकि अगले पांच साल तक फिर से मज़े उड़ाये जा सकें । किसी कारणवश, यदि कुर्सी पाने में विफल रह जायें तो वही बोतलें एक-दूसरे का सिर फोड़ने के काम आती हैं – और वो भी, जनता के ही सिर पर चढ़ कर । सुनते हैं कि राजनेताओं के दोनों हाथों में लड्डू रहते हैं, पर मेरा अनुभव है कि कहीं न कहीं उनके पास पत्थर भी होते हैं, और जब वो लड्डू पाने में विफल हो जाते हैं तो उन्हीं पत्थरों का प्रयोग करते हैं । परन्तु आजकल के समय में यह बात पुरानी हो चुकी है । पक्ष-विपक्ष, दोनों मिल-बांट कर लड्डू खा लेते हैं, जिनका मोल जनता को चुकाना पड़ता है ।
“आईने अहल-ए-सियासत को मुबारकबाद दें,
ज़िन्दगी में कुछ नहीं छोड़ा मसायल के सिवा ।
मुत्तफ़िक इस पर सभी हैं, क्या ख़ुदा क्या नाख़ुदा,
अब सफ़ीना और कहीं भी जाये साहिल के सिवा ॥”
ख़ैर, हम सही सलामत रुद्रप्रयाग पहुंच गये । ड्राईवर को मौका मिला, वो गाड़ी रोक कर बोला, “बुज़ुर्गवार, रुद्रप्रयाग आ गया है । और यहीं सामने काली कमली वाले का आश्रम है । यदि उचित समझें तो रात यहीं रुक जायें । दवा-दारू का प्रबन्ध भी हो पायेगा । हम आपके टिकट के पैसे लौटाये देते हैं ।”
यह बात सभी को ठीक लगी और मैं भी अनमने मन से कण्डक्टर के हाथ से पैसे थामकर नीचे उतर आया । बस फिर से चल दी, और मैं सड़क पर, बे-यारो-मददगार, उसको पीछे से देखता रहा । मुझे घर तक पहुंचाने वाले नेताओं ने मुड़कर भी नहीं देखा कि मेरा क्या हुआ ।
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