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Hospital -Behad Ajeeb Naam

Published by Pooja Rajput in category Hindi | Hindi Poetry | Poetry with tag children | Emotions | hospital | patient

अस्पताल.. बेहद अजीब ही लगता है नाम,

चहल पहल मची है.. डाक्टर, मरीज़ या हो वहाँ कोई मेहमान।

 

ऊँची बनी इमारत.. है सभी सुविधाएँ, एक से बड़ एक है आराम,

सुंदर व् स्वच्छ वातावरण.. बाहर बग़ीचे में छनती धूप में करते कुछ विश्राम।

 

मिलना था किसी को जो वहा भरती था.. समय था काटता,

पहुँचते ही वहाँ क़दम चलने लगे एक अनदेखा रास्ता।

 

भूलभुलैया सा था..पर्ची पर लिखा मंज़िल से लेकर कमरे का पता,

दिशाओं को अपनाते आ पहुँचे क़दम जिस कमरे था अपना वास्ता।

 

एक बड़ा सा कमरा..दो कर्मचारी..भरती थे कुछ 6/7  मरीज़ वहाँ,

अपना बिस्तर, छोटा टीवी.. टेबल कुर्सी, व् पानी भरा जग था सबको प्रदान।

 

बड़ी सी ख़ामोशी.. जो थी मुफत में मिली.. मानो गूँगे माहौल में पलते थे वह इन्सान,

बोलो तो बैठे..सहारे से उठते.. कमज़ोरी में जकड़े, मासूम बुज़ुर्ग थे वहाँ।

 

सोच में डूबे वक़्त काटते.. कभी टीवी, तो कभी पुस्तक पढ़ लेते कुछ ज्ञान,

दोपहर का भौजन आता ही होगा.. टेबल सज़ाकर बैठे वह भोले इन्सान।

 

अाखो में हलचल.. जो हो दरवाज़े पर दस्तक, टकटकी लगाए.. वह दिखते हैरान,

उम्मीद को अपनी पाल के रखते, सब्र न थकता ले उनका इम्तिहान।

 

सोच में डूबा.. बैठा एक कोने, उत्सुकता से पलटा जो लिया उनका नाम,

हाल भी पूछा.. हर बात को जाना, उम्र से जुड़ी तकलीफ़ों का सम्पूर्ण न हो समाधान।

 

सोच से ढीला.. कमज़ोरी में जकड़ा.. अधीन हुआ हालात के.. जो कल था चुस्त व् बुद्धिमान,

वक़्त काटता.. कष्ट पालता, जीवनभर हो निर्भर.. जो देता था कितनों को आराम।

 

दबी दबी आवाज़ एक आई.. बाज़ू वाले बिस्तर से, मुड़कर देखा रोते उसको.. भाग के आयी नर्स वही पे,

लगता था उदास हो उठी.. घरवालों को वह याद करे, बच्चों सी रूठ के बैठी.. ज़िद्दी बन फ़रियाद करे।

 

दे दिलासा शांत किया.. भोजन का फिर नाम लिया, बच्चों जैसे आँसू पोंछे.. कुर्सी पर बैठ खाये सेब कटे,

दिल मानो पसीज उठा.. चारों ओर के आलम से, कैसा जीवन जीते ये लोग.. बाहरी चहल पहल से हो परे।

 

माना आयू के रहते.. तकलीफ़े जुड़ती जाती है, पर अकेले जीते जीते.. तकलीफ़े भी घहरी होती जाती है,

माना अस्पताल है ज़रूरी.. सुख व सुविधा दे, पर अपने बुज़ुर्गों के साथ में रहना.. दिनचर्या में अपनी ख़लल करे।

 

“भावुक मन को रोक न पाया.. उलटे पैर बाहर को आया, ख़ुद को लानत दे रहा.. मैंने ख़ुद के फ़र्ज़ न अदा किए..?”

हाज़री लगाने पहुँचते है.. देख दिलासा भी देते है, पर असल में जो वह चाहते है.. हम प्रदान नहीं कर सकते है।

 

काम काज है ज़रूरी.. रोटी कमाना भी है ज़रूरी, भाग दौड़ की होड़ में खोखले होते जाते है,

परिवार का सुख है उत्तम धन.. सवारने में जीवन को हम अहम अवसर छोड़ते जाते है।

 

कल को हम भी थम जाएँगे.. निर्भरता में बंध जाएँगे, समय ही समय होगा हर ओर.. उस एकांत को कैसे ढोयेंगे?

हम है आज.. कल बच्चे अपने, व्यस्त है आज और व्यस्त रहेंगे.. गुज़रा वक़्त तो पचछतावे के आँसू अपनी जेब मे होंगे।

 

उपलब्धि पाना जीवन लक्ष्य बन चुका, मशीनो के अधीन.. हम मशीन से ही तो दिखते होंगे,

एक से एक.. सुविधाओं के रहते, खोखल अपने तन मन होंगे।

 

अस्पताल, वृद्ध आश्रम हो.. सहायक निकट मददगार भी हो, भर नहीं सकते ख़ाली स्थान.. जो जल बिन बंजर धरती हो,

सींचना हो जो पौधे को.. वृक्ष को अपने जीवन दो, बुज़ुर्ग को अपने समय जो दोगे.. बच्चों का मन तुम जीत सको।

 

भावुक मन में गहरे भाव.. उत्पन्न हो अब निकले है, मेरे भी है बुज़ुर्ग कई.. समझू मैं अपनी ज़िम्मेदारी उनको,

है प्रार्थना ईश्वर से..क्षमता मेरी बनी रहे, सेवा हिस्से आये मेरे..समय दूँ पूरा अपने बुज़ुर्गों को।

अस्पताल.. बेहद अजीब ही लगता है नाम…..!!!

–END–

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