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When I Lost My Father In Childhood !

Published by Durga Prasad in category Childhood and Kids | Family | Hindi | Hindi Story | Social and Moral with tag death | father | grandmother | Mother | uncle | village

मेरे मन में पिता जी के मरने की वजह जानने की प्रबल इच्छा हो गयी तो मैंने सीताराम दादा से पूछना बेहतर समझा. सीताराम दादा को सबकुछ याद था क्योंकि वे पिता जी के बहुत करीबी थे. उन्होंने जो बात बतलाई , वह बिलकुल सही थी. मेरी माँ सिविल हॉस्पिटल में एडमिट थी. उनकी पीठ में घाव हो गया था और दिनानुदिन तेजी से बढ़ते जा रहा था. पिता जी कोई न कोई समय निकाल कर दिनभर में एक बार माँ को देखने जरूर जाते थे , जो मेरी दादी को पसंद नहीं था. काली उस वक़्त महज छह महीने का था और गोबिंद तीन साल का. मेरी उम्र करीब सात साल की थी. काली और गोबिंद तो माँ के साथ हॉस्पिटल में ही रहते थे , लेकिन मैं सबसे बड़ा होने की वजह से मामा घर प्रधनखूंटा में रहता था

. माँ के पास मेरे बड़े मामा जगदेव सिंह बहुधा आया करते थे. रात को भी वहीं केबिन में सो जाया करते थे. बड़े मामा को अस्पताल में नींद नहीं आती थी. रात – रात भर जाग कर समय बिताते थे. माचिस और बीडी उनके पास हमेशा रहता था. बड़े मामा ने एक बार हम सब को बतलाया कि आधी रात को एक प्रेत बिलकुल सफ़ेद कपडे में केबिन में प्रवेश किया. घड़े के जल को उठाकर घट – घट कर एकबार में पी गया. इधर – उधर मुआयना किया और चलता बना. हम तो डर गए, लेकिन हिम्मत बांधकर चादर में दुबके रहे और प्रेत की हरकत पर नज़र रखे रहे. दूसरी रात वही प्रेत फिर आया. उस वक्त मैं बीडी जलाकर पीने ही जा रहा था कि उसने मेरी ओर अपना लंबा सा हाथ बढ़ा दिया .मुझे समझने में देर नहीं लगी कि वह मुझसे बीडी मांग रहा है. मैंने जली हुयी बीडी उसके हाथ में देकर जान छुडाया . इतना लंबा हाथ मैंने किसी आदमी का कभी नहीं देखा था . अवाक रह गया देखकर. पल दो पल ही रूका होगा. बीडी का कश लेता हुआ ओर धुवां छोड़ता हुआ चल दिया.

जगदेव मामा को किसी नर्स ने पहले ही चेता दिया था कि रात में कोई प्रेत हर केबिन का चक्कर लगाता है. घडा का पानी पी जाता है , शीशी की दवा भी उठा- उठा कर पी जाता है. यही नहीं कोई बीडी या सिगरेट पीते हुए रात को मिलता है तो उससे मांग कर पीता है. लंबा सा कद – काठी है. बिलकुल सफ़ेद कपडे में होता है. किसी से बातचीत नहीं करता है. किसी को न तो डराता है न ही नुकसान पहुंचाता है. ऐसे मामा जी देही बांधना ( एक प्रकार का मंत्र जिससे लोग अपने शरीर को बाँध देते हैं , जिसके बाद किसी प्रेत , भूत, जीन को नुक्सान पहुंचाना मुश्किल हो जाता है. ) जानते थे. अस्पताल में आते के साथ देही बांधना नहीं भूलते थे. इसलिए वे भूत – प्रेत से निश्चिन्त रहते थे.

प्रेत को भी इस बात की जानकारी हो गई थी , क्योंकि वह बीडी के लिए दूर से ही हाथ फैलाता था. इस प्रेतात्मा के बारे में तरह – तरह की बातें सुनने को मिलती थी. मामा जी को सारी बातें मालूम होते हुए भी हमें बताना नहीं चाहते थे. हम भी उनपर दबाव नहीं डालते थे. मामा जी को भूत- प्रेत की बातों में बड़ा मजा मिलता था. सुननेवाले तो ऐसी बातों में रम जाया करते थे और बड़े चाव से सुनते थे. माँ के पास गोबिंद और काली के रहने के बाबजूद उनका मन मेरे ऊपर लटका रहता था . मामा जी मुझे माँ से मिलवाने कभी – कभी ले आते थे. माँ के चेहरे पर एक अभूतपूर्व प्रसन्नता देख मैं उनके सिरहाने खड़ा हो जाया करता था. माँ बड़े प्यार – दुलार के साथ मुझे अपने सिरहाने बैठा लेती थी और ढेर सारी मीठी – मीठी बातें किया करती थी. थोड़ी देर के लिए अपनी पीड़ा जो उनकी पीठ के घाव से उभरती थी , उसे भूल जाया करती थी.

मुझे जहाँ तक याद है ऐसे अवसरों में वह अपने कष्ट को कभी भी अपने बच्चो पर प्रकट नहीं होने देती थी. मैं माँ को इतने करीब पाकर धन्य हो जाया करता था. गोबिंद के साथ बारामदे में खेलने निकल जाया करता था . रबर की गेंद से हम घंटों खेला करते थे. मामा जी माँ के तितर – वितर सामानों को करीने से सही स्थानों में रख दिया करते थे. वे डॉक्टर व नर्स से माँ की बीमारी के बारे पूछना कभी नहीं भूलते थे. मैं मामा जी के साथ पेसेंजर ट्रेन से उसी दिन लौट जाता था. लौटते समय माँ मुझे इतने दुलार व प्यार से पुचकारती हुयी कहती थी, ‘’ फिर आना कल मामा जी के साथ, रोना – धोना नहीं. मैं जल्द ठीक हो कर घर आ जाउंगी तो तुम्हें अपने पास बुला लूंगी. ठीक हो रही हूँ. बस कुछ दिनों की तो बात है. शांति दीदी के साथ खेलना. नानी जी को तंग मत करना. ‘’

मुझे माँ के सानिध्य में शाश्वत सुख का आनंद मिलता था , इसलिए मैं उनके आस – पास ही रहना पसंद करता था. इसमें दो मत नहीं की सबसे बड़ा लड़का होने की वजह से माँ मुझे जरूरत से ज्यादा प्यार करती थी. यह कोई नयी बात नहीं थी. सभी माँ अपने बड़े लड़के को ज्यादा प्यार करती ही है. माँ अपवाद नहीं थी. इसे पक्षपात नहीं कहा जा सकता अपितु इसको इस तरह से समझा जा सकता है कि सबसे बड़े लड़के से हर माँ का विशेष लगाव बन जाया करता है . समय के साथ – साथ प्यार व दुलार में परिपक्कत्ता आ जाती है. माँ मुझे मेरे हाथ में कमला नींबू , जो उनके सिरहाने पड़ा रहते थे , मुझे आते वक़्त देना कभी नहीं भूलती थी. उसे पता था कि मैं कमला नीम्बू बहुत पसंद करता हूँ.

पिता जी जब भी मुझसे मिलने मामा घर आते थे तो वे भी मेरे लिए कमला नीम्बू ( संतरा ) लाना नहीं भूलते थे. घर से लोग माँ को देखने तथा हाल – चाल लेने बहुदा आया करते थे. गोबिंद और काली को सम्हालने के लिए कोई न कोई घर का सदस्य या नौकरानी जरूर रहता था. ट्रेन के आने में जब विलम्ब होता था तो मामा जी मुझे कहीं आराम से बिठाकर कमला नीम्बू छील – छील कर खिलाते रहते थे. उस समय नीम्बू में आज की अपेक्षा ज्यादा ही बीज हुआ करते थे. मैं जगदेव मामा से बहुत डरता था , क्योंकि वे मेरी हरकतों पर नाराज होने पर दो – चार कनैठी ( कान को पकड़ कर जोर से घुमाना ) जरूर लगा देते थे. लेकिन भगवान मामा के साथ वो बात नहीं थी. वे भी, जब जगदेव मामा को फुर्सत नहीं रहती थी घर के कामों या दूकानदारी से, मुझे माँ से मिलाने अपने साथ ले आया करते थे. भगवान मामा के साथ आने में मुझे बड़ा मजा आता था .

इसकी वजह थी कि वे एक नंबर के सिनेमची थे और रे टाकिज में मैटनी ( तीन से छो ) शो जरूर देखते थे. मैं उनके साथ लटकन ( attachment ) था. मुझे छोड़े या रखे तो आखिर कहाँ और किसके पास. इसलिए वे मुझे साथ ही रखते थे और इस प्रकार उनके साथ सिनेमा देखने का मौका मिल जाता था. कुछ – कुछ फिल्मों का नाम तो मुझे आज तक याद है. उस वक़्त धनबाद में एक रे टाकिज और दूसरा झरिया में देशबंधु टाकिज ही थे . नयी फिल्म दोनों में ही लगती थी बारी – बारी से. हमारी कोशिश रहती थी कि हम रे टाकिज में ही फिल्म देखें , लेकिन बहुत अच्छी फिल्म देशबंधु में लगने से हम झरिया भी चले जाते थे.

मेरे छोटे मामा काफी खूबशुरात थे – चेहरा – बदन- बिलकुल गोरा – चिट्टा. आकर्षक कद काठी. आँखों में चमक , नाक – नक्स मनमोहक इतना कि एक बार जो कोई देख ले तो देखते ही रह जाए – नज़र हटाने का जी न करे. उसी प्रकार कपडे के भी शौकीन थे. धोती- कुरता उनका पहनावा था. सेनगुप्ता धोती – बगुले की पंख की तरह दपदप सफ़ेद व मैच करता हुआ सनफ्राईज के कपडे की कमीज. धोती तो इस कदर शलीके से पहनते थे कि देखनेवाले देखते ही रह जाये. कमीज की दाहीने पॉकेट में धोती का एक शिरा जब वे कभी-कभी इस शलिके से डाल दिया करते थे कि लोगों की नज़र पड़ते ही ‘’ वाह ! क्या ठाठ है ? ” अनायास ही जुबान से निकल पड़ते थे.

मैं छोटे मामा के साथ कई वर्षों तक रहा – उनके साथ धनबाद , झरिया , केंदुआ, करकेंद , कतरास जाने का मौका मिला , वह ठाठ-वाट व ठस्सा मुझे रईसों में भी देखने को नहीं मिला. ईश्वर ने उन्हें ख़ूबसूरती दी थी तो वे उसे सम्हाल कर, सहेज कर रखने की अक्ल भी दी थी उन्हें. सात – आठ साल का बच्चा दुनियादारी से कितना अवगत हो सकता है. इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है. यदि मैं यह बयाँ करूं कि भगवान मामा घर से निकलने के पहले एक नामी – गरामी विदेशी कंपनी का सेंट या इतर साफ़ रुई की फुई में भिगोकर दोनों कानों में रखना कभी नहीं भूलते थे. यही नहीं आईने के सामने कमीज या कुर्ता पर भी दो – चार बूंद छिडक दिया करते थे ताकि राह से गुजरते वक़्त खुसबू बिखरती जाय. राहगीर जब करीब से – क्या पुरूष – क्या नारियां , गुजरते थे तो एक बार मुड कर पीछे जरूर देखते थे यह जानने के लिए कि आखिर कौन इतना शौकीन शख्स है , जो इतनी दमदार सेंट लगाया हुआ है और रईसजादे की तरह कदम से कदम मिलाता हुआ खरामा – खरामा बेपरवाह जा रहा है.

एक खास बात का जिक्र करना आवशक है कि वे मुझे हमेशा दाहिने या बाएं हाथ से पकडे रहते थे. एक पल के लिए भी मुझे छोड़ते नहीं थे. इसकी वजह थी कि वे मेरी माँ के पीठुवा भाई थे. यही नहीं माँ को वे बेइन्तहाँ प्यार करते थे. माँ भी अपने छोटे भाई पर जान निछावर करती थी. मुझे अब समझ में आता है कि भाई – बहन का प्यार भी इतना गजब का हो सकता है. माँ इसलिए निश्चिन्त रहती थी मेरे मामा घर में रहने से कि मेरे छोटे मामा मुझे बहुत प्यार ही नहीं करते थे , बल्कि मेरा बहुत ख्याल रखते थे. सच माने में मैं उनके साथ चलने में अपने को नबाब का नाती या कोई राजकुमार से कम नहीं समझता था. जो चीजें दूसरे बच्चों के लिए सपना था, वो चीजें केवल मेरे मुहं से निकलने भर की देर होती थी कि मामा बेहिचक मेरे लिए खरीद देते थे. मेरे लिए पैसे की अहमियत कुछ भी नहीं थी.

अब आप जानना चाहेंगे की उनके पास खर्च करने के लिए इतने पैसे आते कहाँ से थे. तो मैं बता देना चाहता हूँ की उनका उस ज़माने में कपडा, चीनी एवं किरासन तेल का , जहाँ तक मुझे याद है सोलह गावों का कोटा था. पैसे बरसते थे. उनमें एक अच्छे व्यापारी के सभी गुण कूट – कूट कर भरे हुए थे. वे अपने ग्राहकों को खुश रखना जानते थे. सच पूछिए तो वे अपने ग्राहकों को देवतुल्य समझते थे तथा उनका समुचित आदर व सम्मान करते थे.

पैसे तो बहुतों के पास होते हैं, लेकिन खर्च करने की हिम्मत या शौक कितनों के पास होती है ? यह कथन सर्व विदित है. लेकिन मेरे छोटे मामा अहले दर्जे के शौकीन थे. मैंने गर्मी के दिनों में महंगे से महंगे धुप – छाँव ( गोगल्स ) वाला चश्मा खरीद कर पहनते हुए देखा था. एक बार तो मेरे लिए भी ऑर्डर देकर उसी कम्पनी का कलकत्ता से मंगवा दिए थे. मैं जब मामा के साथ उनके ही स्टाईल में चैत – बैसाख की भरी दुपहरी में धूप में निकलता था तो लोग बिना टोके नहीं रह पाते थे, ‘’ मामा – भगना की जोड़ी आज कौन सा सनीमा देखने को निकला ? “

कोई तो मेरी तरफ मुड कर मामा पर टोंट कसे बिना अपने को नहीं रोक पाता था, “ यह राजकुमार की सवारी किधर चली ? “

मैं भी बचपन से मामा के साथ रहते – रहते इतना दबंग या ढीठ हो गया था कि मैं भी उसी लहजे में जबाब देने में कोई कौर – कसर नहीं छोड़ता था ,” प्रयाग मामा जी ! आप को जलन क्यों हो रही है ? आप भी तो खूब कमाते – धमाते हैं, तो क्यों नहीं आप भी हमारे साथ – साथ सनीमा देखने चलते है ? आप कंजूस नंबर एक हैं. पैसे सहेज – सहेज कर आयरन – चेस्ट में जमा करते हैं , मेरे मामा जी जितना कमाते हैं , उससे ज्यादा तो अपने शौक – मौज में खर्च कर देते हैं. आज साप्ताहिक छुट्टी है. हम तो चले घूमने और ‘ नागिन ‘ फिल्म देखने , वो भी पह्ला दिन – वो भी मेटनी शो. ब्लेक में टिकट मिलती है, मामा उसकी परवाह नहीं करते. क्या समझे ? “’

प्रयाग मामा की नानी मर जाये कि फिर कभी हमें छेड़े या टोके. ऐसे वक़्त में मामा मेरा साथ देने में नहीं चुकते थे. ऐसी घड़ी में वार्तालाप का लुत्फ़ उठाने में उन्हें बड़ा मजा आता था . मामा के साथ मेरा बहुत पटता था. उम्र में बहुत फर्क होने के बाबजूद हमारे बीच दोस्ताना रिश्ता कायम हो गया था. लौटते वक़्त देशबंधु मिस्टान – भंडार में हम पंतुआ जरूर खाते थे. मामा को रसगुल्ला बहुत पसंद था. इसलिए वे दो नहीं , चार – चार खा जाते थे. भांड में घर के लिए भी बंधवाना कभी नहीं भूलते थे. कभी – कभी खाते वक़्त मेरी माँ को याद कर लेते थे, दीदी के लिए ले जाते तो बड़ा अच्छा होता वो भी रसगुल्ला बहुत पसंद करती है, लेकिन डाक्टर ने उनको मीठा खाने से मना कर दिया है. मीठा खाने से पीठ का घाव जल्द नहीं सूखेगा. इसलिए सच पूछो तो मेरा भी रसगुल्ला खाने से एक तरह का उचाट हो गया है. दीदी के साथ आते थे तो हमलोगों में रसगुल्ला खाने की होड़ लग जाती थी. हम तो दस- पंद्रह तक खा जाते थे, लेकिन दीदी चार-पांच खाते – खाते हथियार डाल देती थी. जानते हो ,दुर्गा, दीदी को बचपन से ही मीठा से उतना प्रेम नहीं है. उसे तो बिरजू का चाट बहुत पसंद है. अब झरिया जाएँ एक साथ किसी दिन तब न … ? वह देशबंधु टाकिज के सामने खोमचा में चाट बेचता है. घंटा भर खड़ा रहिये तब जा कर मिलता है. कितना प्रेम से चाट बनाता है, हम ओकता जाते हैं ,लेकिन वह नहीं,इसीलिए तो भीड़ भी इतनी होती है. लास्ट में दही इतनी स्टाईल से घुमा – घुमा कर चाट के चारों तरफ डालता है, वह काबिले तारीफ है. सच बोलूं तो कलाकारी है.

छोटे मामा खाने – पीने के भी शौकीन थे . वे कभी-कभार ही चाट-पकौड़ी,चटक- मटक चीजें खाते थे. उनका मूड होता या कोई चाट खाने की इच्छा जाहिर कर देता तो वे मन रखने के लिए खा लेते थे. वे बहुधा कहा करते थे – ऐसे वक़्त में ये चीजें जिह्वा को स्वाद पहुंचाती है, लेकिन हमारे पेट को नुकसान. इसलिए हमें ये सब चीजें नहीं खानी चाहिए. जैसा होगा अन्न, वैसा होगा मन –इस कहावत में जो बात कही गयी है , उसे याद रखना है हमें. कहतें हैं कि पेट जिसका ठीक , उसे कोई बीमारी नहीं होती ,ऐसे लोग सर्वदा स्वस्थ्य रहते हैं और जीने का आनन्द उठा पाते हैं. बाकि सब तो पूरी जिन्दगी भी नहीं जी पाते , असमय ही मर-खप जाते हैं . मेरे छोटे मामा की इस बात में इतनी सच्चाई थी कि मैं क्या , कोई भी व्यक्ति इसे काट नहीं सकता था. मैं खूब ध्यान से मामा की इन बातो को सुनता था – अपने जीवन में उतारने का प्रयास करता था.

एक दिन की बात है रे टाकिज में ‘ नागिन ’ फिल्म लगी हुयी थी . मामा जी फ़िल्मी खुपिया पाल – पोस कर रखे हुए थे , जो सिनेमा के बारे में जानकारी दिया करते थे . मैं उन सभी चाटुकारों को बाई फेस पहचानता ही नहीं था , बल्कि उनकी चाटुकारिता से भली – भांति परिचित भी था. मैं उनकी बातो एवं करतूतों पर पैनी नज़र रखता था. – यह बात उनसे छिपी हुयी नहीं थी. चाहे कोई वक़्त क्यों न हो , उनको मिलने की अनुमति मिली हुयी थी. चाहे वे मैदान ( हमारे ग्राम में खुली व एकांत जगह जहाँ शौच के लिए लोग जाया करते हैं ,उसे मैदान कहा जाता है. ) गयें हों या कुएं पर स्नान कर रहें हों या जलपान या भोजन कर रहें हों या आराम फरमा रहें हों या दूकानदारी में ग्राहकों की भीड़ से घीरे हुए हों, ये बेरोक टोक चले आते थे . इस बात को घर वाले अच्छी तरह जानते थे कि इनको नज़र अंदाज़ करना अर्थात मामा को नाराज़ करने जैसा था.

मेरे बड़े मामा जगदेव या मेरी बुआ भगवानी देवी इन चाटुकारों से जुबान नहीं लड़ाती थी. वक़्त – बेवक्त चाय-पानी से भी खातिरदारी करते थे. मामा के कान में इनके आने की सूचना ज्यो मिलती थी , वे तुरंत दौड़ पड़ते थे. खड़े – खड़े मामा कभी बात नहीं करते थे. जगह निश्चित थी जिसे मेरे अतिरिक्त घर के सभी लोग जानते थे. जब ये लोग बातें करते थे ,वहां किसी के जाने या कान पाटने ( छुपकर ध्यान से सुनना ) की इजाजत नहीं थी. मैं एक – दो बार उत्सुकतावश यह जानने के लिए कि आखिर गुपचुप कौन सी बात या मंत्रणा हो रही है, जानने के ख्याल से दबे पाँव छुपकर सुनने का प्रयास किया तो मामा जी ने मुझे झिड़क कर भगा दिया ही नहीं बल्कि चेतवानी भी दे डाली कि किसी की बात को लुक – छिपकर या चोरी – छिपे नहीं सुननी चाहिए, पाप लगता है इससे. उस दिन से जो मेरी नानी मर जाये कि कभी मैंने सुनने के बारे कल्पना भी की हो.

तो बता रहा था कि रे टाकिज ( सिनेमा हाल ) में नागिन फिल्म लगी हुयी थी – पहला दिन – मेटनी शो. दो लोग दूकानदारी की भीड़ में यमराज की तरह पहुँच गये . मैं बड़े मामा के पास चबूतरा पर बैठ कर मूंगफली बड़े इत्मिनान से खा रहा था. मेरी नज़र इन चाटुकारों पर एकाएक पड़ गयी. मुझे आभास हो गया कि कोई अच्छी फिल्म लगने का चक्कर जरूर है और ये लोग सूचना देकर कुछ रूपये मामा से ऐठने आ धमके हैं. इतनी कम उम्र में ऐसी बातो का तजूरुबा मुझे काफी हो गयी थी. “ अच्छा देखता हूँ मामा कैसे अकेले निकल जाते हैं सिनेमा ? “ यह भाव मेरे मन में घर कर गया था.

मैं इसे चुनौती के रूप में लेता था. दूसरी बात कि मैं इतना सतर्क और सजग रहता था कि मामा के पीछे –पीछे पोछींडा की तरह लटका रहता था. मामा भी कम तीरंदाज नहीं थे. वे भी मेरे ऊपर गीध की तरह नजर रखे रहते थे . वे डाल-डाल तो मैं पात-पात . वे कई बार मुझे झांसा देकर अकेले निकल जाने के जाल बुने, लेकिन सफल नहीं हो सके . मुझे हर बार शिकारी कुत्ते की तरह पीछा करते हुए पाए. फिर क्या था, इज्जत – आबरू बचाने के लिए गियर बदल दिए अर्थात वे मुझे अपने साथ लिवा जाने लगे. उम्र में इतना अंतर होने के बाबजूद भी हममे एक अच्छी दोस्ती कायम हो गयी थी. हम एक दूसरे पर यकीन करने लगे और अपने – अपने दिल की बात भी बताने में किसी तरह का संकोच नहीं करने लगे. तो वे दोनों में से एक भीड़ को चीरता हुआ आगे बढ़कर चेहरा दिखा दिया . बस क्या था , मामा एक्सन में आ गये. अपने मित्र , जो उनको मदद कर रहा था दुकानदारी में , से बोले, “ गोदा दा ! सम्हालना जरा, एक मिनट में आता हूँ, कह कर पीछ्वाडी निकल गये उसी निश्चित जगह पर.

मेरा तो कान खड़ा हो गया कि आज कोई जोरदार फिल्म लगी हुयी है चाहे रे में या देशबंधु में . मन मेरा बैठा – बैठा मूंगफली खाने का नाटक करने में मशगुल हो गया इस प्रकार कि मुझे कुछ भी मालूम नहीं. मामा उठते वक़्त वगैर गिने सौ दो सौ रूपये पाकिट में रखना ऐसे वक़्त में कभी नहीं भूलते थे. आज भी उसने कुछ नोट रख लिए थे. – ऐसा मुझे लगा क्योंकि पाकिट से हाथ निकालते हुए मैंने उन्हें देख लिया था. दो – तीन मिनट में ही वे तेज़ क़दमों से लौट कर दूकान में उसी स्थान पर बैठ गये जहाँ वे पहले से बैठे हुए थे. इतने व्यस्त होते हुए उनकी सधी नज़रें मुझ पर पड़ ही गयी , मैं भी यही चाहता था कि मामा को मालूम हो जाये कि मुझको उनकी योजना की भनक लग चुकी है. वे मुझे तिरछी नज़र से देखते हुए चल दिए तो मैंने भी उन्हें घूरने में बाज़ नहीं आया.

झटाझट ग्राहक को सलटाने लगे तो मैं आश्वस्त हो गया कि सिनेमा जाना एक तरह से तय हो गया है. उन चाटुकारों को रक़म मिल गयी है . वे मुहीम पर निकल चुके हैं या निकलनेवाले हैं. उनका काम था चार – पांच घंटे पहले ही निकल कर टिकट मेटनी शो का कटा कर म के सामने इन्तजार करना. “ गोदा दा ! जरा दुर्गा को बुलाओ तो , सामने ही चबूतरा पर दादा के बगल में बैठकर मूंगफली खा रहा है.”

मैं इस घड़ी का बेसब्री से इन्तजार करता था. अपनी जगह से टस से मस नहीं होता था. मैं जान बुझकर मामा को उकसाता था. “ गोदा मामा , जरा हाथ धोकर कुआँ से आते हैं.”

मैं जोर से मामा को सुनाकर बोलता था उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिए. मामा सुनते ही बाहर बेतहासा निकल पड़ते थे. “ दुर्गा ! इधर आओ पहले ,ध्यान से सुनो , बुआ को बोल दो ,आज धनबाद जाना है , दोपहर में , जल्दी से भात और आलू पोस्तु बनाकर तैयार कर दे . एक बजे निकल जाईब. गाडी न मिली तो साईकिल से ही . “

मैं अनमना सा मुड़ जाता था तो मुझे रोककर दूसरा आदेश देना मामा नहीं भूलते थे “ दुर्गा ! तू भी, जल्दी से नहा – धोकर – नयावाला शर्ट – पेंट पहन के, खा – पीकर के ग्यारह बजे तक तैयार रहो , जैसे दुबारा बोलना न पड़े. जाओ . खड़े – खड़े मुहं मत देखो.”

मैं मुड कर मामा को देखता हुआ चल देता था. मेरी बांछे खिल जाती थीं यह जानकार कि आज कोई हिट फिल्म देखने को मिलेगी . मस्ती ही मस्ती मामा के साथ. मैं शावक की तरह उछलता हुआ बुआ को जाकर नमक मिर्च लगाकर सारी बातें विस्तार से बता दिया . मामा जी ने झटपट दूकान समेट दी. कुछ ग्राहकों , जिनको कुछ कपडे लेना जरूरी था, को भी कल आने की बात कह कर टरका दिए. मैं पहले से ही सतर्क था. मामा जी ने जो नए-नए कपडे खरीद दिए थे , निकाल कर रख लिया था. केवल पहनने की आवश्यकता थी. पांच मिनट का काम था. बुआ जी और नानी जी ने उतने समय में ही दाल-भात , आलू पोस्तु की सब्जी व करेला का भुंजिया बना कर रेडी कर दिया था, केवल हमें खाने के लिए बैठना था. मामा जी ने समय देखा – बारह हो रहा था. झट कुएं पर से हाथ-पैर धोकर रसोई में पालथी मार कर बैठ गये. मैं पिछलग्गू की तरह उनके बगल में बोरा खींच कर बैठ गया. मामा जी ने कनखी से मेरी और देखा . उनका देखने का मतलब मुझे समझने में देर नहीं लगी. उनका ताकने का अर्थ था , “ बच्चू ! चलने के लिए झट – पट खा लो. आधा पेट भी खा लोगो तो भी चलेगा क्योंकि आज धनबाद में ही – रे टाकिज में जबरदस्त फिल्म लगी है. आज तो बिरजू का चाट खाना संभव नहीं होगा.

मुझे पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी कि पूछूं कि कौन सी फिल्म लगी है. ऐसे मुझे आभास हो गया था कि कोई नयी फिल्म ही होगी. आज ही लगी होगी. मेरा खोराक बहुत कम था. इसलिए जल्द ही खाकर – मुहं हाथ धोकर मामा से पहले तैयार हो गया. मामा जी का गोगल्स , धोती- कुरता – चुनियाया हुआ लेते आया. उनके शयन कक्ष में चौकी पर कायदे से रख दिया. बाटा कंपनी का काले रंग का हाफ शू व सफ़ेद रंग का मोजा भी लाकर नीचे रख दिया. उनके आने की प्रतीक्षा करने लगा. दस मिनट में ही वे एक्सप्रेस मेल की तरह कक्ष में घुसे. मैं जल्द धोती – कुरता उनके हाथ में धरा दिया. पहन लेने के बाद जूते – मौजे भी पैरों के पास कर दिए. मामा जी ने आदतन एक चवनियाँ मुस्कान मेरी ओर छोड़ दी . मैं भी अपनी मुस्कान को नहीं रोक सका. हम दोनों द्ल्हे व सह्बाले की तरह सज – धज कर निकल पड़े.

मामा जी अपने बड़े भाई जगदेव मामा की इज्जत करते थे तथा कहीं जाने से पहले उनसे अनुमति ले लिया करते थे. आज भी उसने दादा से कह दिया,’’ दादा, हम दुर्गा को लेकर धनबाद जा रहें है. दीदी को भी अस्पताल से देखते आयेंगे. आप शाम की ट्रेन से चले आयेंगे सोने के लिए रात में. ‘’

हम सिनेमा हाल के नजदीक ज्योहिं पहुंचे दोनों मिल गये . कोई अच्छी फिल्म लगी हुयी थी. दो बजे पहुँच गये . बेहिसाब भीड़ थी. सिनेमची लोग बेचैन दीख रहे थे. मामा के चमचों ने टिकट का इंतजाम कर दिया था . हम फिल्म देखकर सीधे अस्पताल माँ को देखने आ गये. माँ की पीठ में घाव था. दिनानुदीन बढ़ते जा रहा था. वह दाहिने करवट लेटी हुयी थी. उनकी नज़र दरवाजे तरफ टिकी हई थी. हमें देखते ही खुशी से पागल हो गयी. उठ कर बैठ गयी. मुझे अपने पास बैठा ली. पूछी , “ मामा के साथ खूब सनीमा देख रहे हो आजकल. आज कौन सा सनीमा देख कर आ रहे हो ?

मैंने मामा की तरफ तिरछी नजर से देखा जैसे मैं उनकी अनुमति चाहता हूँ . “ बता दो. दीदी जो पूछती है. “ हाँ , नागिन सनीमा देख कर आ रहे हैं , रे टाकिल से . सनीमा में खूब बड़ा सा सांप – बीन बजने पर सांप खड़ा हो जाता था और गाना सुनता था – मन डोले मेरा तन डोले , मेरे दिल का गया करार , ये कौन बजाये बाँसुरिया ? ‘ एक आदमी बीन बजाता था और एक औरत नाचती थी.”

उस जमाने में यह गाना इतना लोकप्रिय हुआ था कि क्या गली क्या मोहल्ले हर जगह हर शुभ मौके पर बजाये जाते थे. मुझे याद है कि हर बुधवार शाम को सीलोन रेडिओ पर अमीन शायनी का ‘ बीना का माला ‘ १६ गाने का एक प्रोग्राम आता था. जो गाना जितना लोकप्रिय होता था उसका पायदान उतना ही उंचा होता था. मन डोले – तन डोले , मुझे याद है , कई हफ़्तों तक एक नंबर पायदान पर बजता रहा. लता मंगेशकर ने इस गाने को बड़े ही दिलोजान से गाई थी और वैजयंतीमाला ने इसे बड़े ही अद्भुत ढंग से प्रस्तुत किया था. उनका नृत्य बेमिशाल था.

उनसठ वर्षों के बाद भी यह गाना – इसका मधुर संगीत – भूली – भटकी स्मृति तब जीवंत हो जाती है जब हम इसे कहीं भी – कभी भी सुनते हैं . मेरे मोब. एवं लैपटॉप में इस गाने का ऑडियो – विडिओ दोनों लोड है . जब भी मन उदिग्न या खिन्न किसी बात को लेकर हो जाता है , तो मैं यह गाना अक्सरा सुनता हूँ – मुझे अपूर्ब शांति मिलती है.

इसी सन्दर्भ में यह जिक्र कर देना प्रासंगिक होगा कि मैंने भगवान मामा के साथ एक फिल्म देखी थी ‘ जागृति ‘ यह फिल्म मुझे बहुत ही अच्छी लगी थी . देश आज़ाद हुए महज सात साल हुए थे और यह फिल्म देशभक्ति पर आधरित थी . इसके कुछेक गाने इतने मार्मिक थे जिसे शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता . हम लायें हैं तूफ़ान से कस्ती निकाल के , इस देश को रखना , मेरे बच्चों सम्हाल के |

दूसरा गाना भी काफी लोकप्रिय हुआ – ‘ दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल , सांवरमती के संत तूने कर दिया कमाल | एक गाना और था – ‘ आओ बच्चों तुझे दिखाएँ , झांकी हिन्दुस्तान की , इस मिट्टी से तिलक करो , ये धरती है बलिदान की , बन्दे मातरम् | ’

आज भी इन गानों को राष्ट्र्पर्ब के शुभ अवसर पर अवश्य बजाये जाते हैं . एक फिल्म जिसने मेरे मन को छू लिया था , वह फिल्म थी ‘ बूट पोलिश ’ इतनी मार्मिक थी यह फिल्म कि मैंने कई बार रो दिए थे विशेषकर उस गाने के बोल एवं दृश्य पर – ‘ चली कौन से देश , गुजरिया तू सज – धज के ? जाऊं पिया के देश , ओ रसिया मैं सज – धज के | छलके माता- पिता की अँखियाँ , रोये तेरे बचपन की सखियाँ , भैया करे पुकार हो , भैया करे पुकार , न जा घर- आँगन सज के | ’ इस गाने को सुनकर पूरा हाल रो पड़ा था इतना कारुणिक था यह . इस फिल्म की विशेषता यह थी कि इस फिल्म में कोई नायक – नायिका नहीं थी , भाई – बहन के आन्तरिक प्रेम को दर्शाया गया था.

इसमें एक गाना और था जो देश के भविष्य की कल्पना की गयी थी. आज भी यह गाना हमारे देश के नौजवानों और नेताओं के लिए प्रेरक बन सकती है. उनसठ साल पहले जिस आशा और विश्वास से हिंदुस्तान की झांकी प्रस्तुत की गयी थी , इस गाने में सन्निहित है – ‘ नन्हें – मुन्ने बच्चे तेरी मुठी में क्या है ? ’ मुठ्ठी में है , तकदीर हमारी , मुठ्ठी में है तकदीर हमारी , हमने किस्मत को बस में किया है , हमने किस्मत को बस में किया है | भोली – भाली, मतवाली आँखों में क्या है ? आँखों में झूमें उम्मीदों की दीवाली , आनेवाली दुनिया का सपना सजा है. ’ आज देश की हालत , स्थिति क्या है , किसी से छुपी हुयी नहीं है. बच्चों को नंग – धडंग , भूखे – प्यासे , रोते – कलपते , लाचार व असहाय देखते हैं तो कलेजा फट जाता है. अनायास ही सूर्यकांत त्रिपाठी ‘ निराला ’ की कविता भिक्षुक याद आ जाती है – वह आता दो टूक कलेजे को करता पछताता , पथ पर आता … ’
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