I was about 8 my father died.My mother with 3 sons became widow, Struggled to feed & teach us.I witnessed her pain Fortunate to live with her till her death.
जब मैं महज सात साल का था तो मेरे पिताजी का अकस्मात देहांत हो गया . तीन भाइयों – काली, गोबिंद एवं दुर्गा में – मैं ही बड़ा था. इसलिए मुझे पिता जी का अग्नि संस्कार करना पड़ा . मेरे लिए यह एक नई बात थी . मौत क्या होती है ? , आदमी क्यूँ मर जाता है ? मरने के बाद कहाँ चला जाता है ? जाने के बाद लौट कर फिर क्यों नहीं आता ? ऐसे – ऐसे सवाल मेरे मन में उठ रहे थे , जब सीताराम दादा ने मुझे अपनी गोद में उठाकर , एक जलती हुई लकड़ी मेरे हाथ में थमाकर , मुखाग्नि करवाई. ये जितने भी क्रिया – कर्म हो रहे थे , उससे मैं बिल्कुल अनजान था. लोगों की भीड़ ने मुझे कुछ समझने – बुझने के लिए मजबूर कर दिया था.
मैं एक बात से आश्वस्त हो गया कि जरूर कोई विशेष बात है कि इतने लोग एक साथ इस मोके पर जमा हो गए हैं खुदिया नदी के तट पर. किस चालाकी से दादा जी ने मेरी आँखों पर मुखाग्नि दिलवाते वक्त अपनी हथेली रख डाली थी , पांच – सात फेरे लगवा लेने के बाद उसने कितने दुलार से मुझे अपनी गोद में बिठाया था – यह बात उस वक़्त मेरी समझ में बिलकुल नहीं आया था. बड़ा होने पर और दो – चार लोगों के दाह-संस्कार में शामिल होने के बाद मुझे पता चला . दादाजी से तत्क्षण सवाल किया था कि वे पिता जी को क्यों जला रहे हैं.
इस पर उसने बड़ी ही सहजता से जबाव दिया था ‘’ पिता जी को भगवान ने बुला लिया है और वे वहीँ जा रहे हैं. ‘’
फिर और कभी नहीं आयेंगे क्या ‘’?
दादाजी इस सवाल पर मौन हो गए थे कुछ क्षण के लिए. ‘’ जब भगवान उनको आने देंगे तो वे जरूर आयेंगे – तुमसे मिलने के लिए- तुमसे बातें करने के लिए.
‘’ भगवान नहीं छोडेंगें तो ? ‘’
‘’ जरूर छोडेगें , भगवान किसी को नाराज़ नहीं करते.’’
दादाजी ने बड़े विश्वास के साथ यह बात मुझे बतायी थी, अविश्वास करने की कोई गुन्जाईस नहीं थी. मैंने फिर कोई सवाल उनसे करना मुनासिब नहीं समझा ओर चुप हो गया. थोड़ी दूर पर रोती- बिलखती हुई दादी की गोद में मुझे दादा जी ने ऐसे डाल दिया था कि जैसे कुछ हुआ ही न हो. दादी ने आँचल से अपने आंसुओं को पोछती हुई और अपनी होठों पर कृत्रिम मुस्कान लाती हुई , मुझे इधर- उधर की बातों में घंटों उलझाये रखी थी. मैं अबोथ बालक था उस वक्त , इसलिए मैं दादी की चिकनी – चुपड़ी बातों को नहीं समझ सका. आज मुझे समझ में आ रहा है कि बेवज़ह इतना प्यार – दुलार दादी के मन में कैसे उमड़ पड़ा था. किसी ने सुझाव दिया था कि छेदी ( मेरे पिताजी) का छोटा भाई गौरी शंकर तो है ही – वही आग दे देगा .
दादी इस प्रस्ताव को सुन कर उखड गयी थी. ‘ गौरी शंकर क्यों देगा ? माँ भी आग दे सकती है, मैं दूंगी . इसमें हर्ज ही क्या है ? क्यों हरि सिंह ?’ – दादी ने अपना मंतव्य दिया था.
‘ हाँ, हाँ , दिदिया ! क्यों नहीं दे सकती ? – हरिसिंह ने कहा.
हरिसिहं की बात को काटनेवाला उस समय कोई न था. सीताराम दादा ने तत्क्षण आगे बढ़कर बड़े ही विश्वास के साथ सुझाव दिया कि छेदी भैया का तो लड़का है , तो अपना लड़का रहते हुए कोई दूसरा कैसे आग दे सकता है ? बात भी सही थी . हिंदू धर्म के अनुसार पिता का अग्नि संस्कार करने का अधिकार पुत्र को ही प्राप्त है – किसी अन्य को नहीं. किसी ने अपनी बात रखी ,” लड़का तो है , लेकिन बच्चा है – यही कोई पांच – सात साल के करीब.”
सीताराम दादा ने कहा ,” इससे क्या होता है ?”
“ क्यों नहीं होता , इतना छोटा बच्चा है , हदस जायेगा तो ?” – हाड़ी सिंह ने दलील दी. दूसरी बात अभी लड़का प्रधनखूंटा में है , कौन लाएगा अभी , इस वक़्त उसे ? क्या वह आएगा भी ?”
“ मैं ले आऊँगा , मैं ! “
सीताराम दादा ने आगे बढ़कर जिम्मेदारी की बात कह डाली. सभी उनकी तरफ आँखें फाड़-फाड़ कर देखने लगे थे कि आज सीताराम को हो क्या गया है.
हाड़ी सिंह ने सवाल किया ,” इस वक्त इतना समय हो चूका है , न गाड़ी , न घोडा, चार – पांच कोस है प्रधनखूंटा , इतनी जल्दी कैसे ला पायोगे ? दिदिया तो ?
“ दिदिया- उदिया कुछ नहीं . मैं लाने चला”.
ओर उसने अपनी साईकिल उठाई – धोती का फेटा कसा – पैडल मारता हुआ चल दिया . लोग हा फाड़ के देखते रह गए. दादी के दो लड़के – छेदी ओर गौरीशंकर . पिताजी का तो देहांत हो चूका था – एकमात्र गौरीशंकर अब बचा हुआ था. दादी खोम – जोग खूब जानती थी. वह नहीं चाहती थी कि गौरीशंकर आग दे . इसलिए उसका नाम आने से वह खुलकर तो समाज के सामने विरोध नहीं कर सकती थी. इसलिए वह खुद आग देने के लिए तैयार हो गयी थी. दादी के दिमाग से मेरी वाली बात निकल गयी थी. हाँ, एक बात दादी के मुहं से बाद के दिनों में मैं सुना था कि जब वह खुद आग देने को तैयार हो गयी तो उनके कानो में पिताजी की आवाज सुनायी दी थी , “माँ ! तुम यह क्या करने जा रही हो ? . मेरा लड़का है , उससे मेरा अग्नि – संस्कार क्यों नहीं करवाती ? “
दादी ने तत्क्षण अपना इरादा बदल दिया था और सीताराम दादा को आदेश दिया था कि वह तुरंत साईकल से जाकर दुर्गा को ले आये . यह बात बड़े होने पर प्रसंगवश सबके सामने दादी ने बतलाई थी. दादी ने स्पष्ट किया था कि उनका बड़ा बेटा छेदी मानो बार – बार यह बात उनके कानों में कह रहा हो – ऐसा खुदिया पूल पार करते ही उसे भान होने लगा था. इस बात में पर्याप्त दम था, इसलिए मेरी बडकी बुआ भी कभी- कभार इस बात को बड़े ही आत्मविश्वास के साथ दोहराती थी. मैं भी अब मानने लगा था सच्चाई यही है .
सीताराम दादा ने मुझे साईकल पर बिठाकर घर ले आया था . मैं कमीज पेंट की जगह कफ़न वाला कपड़े का धोतीनुमा – कुर्तानुमा कपड़े पहना हुआ था. इस कपडे में मुझे अजीब – सा एहसास हो रहा था . एक बात मैं भूल नहीं सकता कि सीताराम दादा ( मेरी दादी का अनुज ) ने अपना गमछा मोटा करके सीट के सामनेवाली रड में घूमा-घूमा कर इस कायदे से लपेट दिया था कि मुझे बैठने में कोई असुबिधा न हो. ओर सचमुच रड पर दोनों पैरों को दोनों तरफ लटकाकर घर तक आने में मुझे तनिक भी असुबिधा नहीं हुई थी . सड़क पर जहाँ – तहां गढ़ें मिले, लेकिन दादाजी ने बड़ी ही सावधानी बरतते हुए , मुझे सम्हालते हुए लाए थे.
इसकी दो मुख्य वजह थी – मेरे पिताजी के वे अपने मामा थे , दूसरी वे मेरे पिता जी के परम मित्र भी थे . तीसरी वजह भी थी , जो गौण प्रतीत होती है, वह थी दुःख के वक्त मदद करने को उनका हमेशा तत्पर रहना – चाहे अपना हो या पराया. उनकी यह विशेषता आजीवन बनी रही – यह उनके व्यक्तित्व का एक विशेष गुण था , जो बहुत से कम लोगों में देखने को मिलता है. दादा जी के प्रति मेरे मन- मस्तिष्क में उसी वक्त से रोष व घृणा घर कर गयी थी . मैं सोचता था कि दादा जी ने मुझे मामा घर से लाकर मेरे पिताजी को जलवाया है – वे मेरे पिताजी के कातिल हैं.
मैं जैसे – जैसे बड़ा होता गया – परत दर परत सच्चाई सामने आती गयी . मैं समझ गया कि इसमें दादा जी का कोई दोष नहीं – उन्होंने तो हमारी बहुत बड़ी मदद की है – दुःख की घड़ी में . हमें तो उनका शुक्रगुजार होना चाहिए. इसी सन्दर्भ में मैं एक दिन , जब मैं समझदार हो गया , उनके पास गया ओर पूछ बैठा ,
“ मेरे पिताजी की अचानक मौत हो जाने पर, क्या आपने मुझे अग्नि संस्कार के लिए अपनी साईकल पर बिठाकर मेरे मामा घर प्रधनखूंटा से लाए थे ? ”
यह एक ऐसा सवाल था और आकस्मिक भी , जिसकी उन्हें मुझसे उम्मीद नहीं थी. सुन कर हैरान रह गए .पिताजी के गुजरे ग्यारह – बारह साल हो गए थे . अब यह बात अतीत में दफ़न हो चुकी थी . अचनाक यह बात मेरे जेहन में एकाएक कैसे कौंध गई . यह सुन कर पुरानी बातें जीवंत हो उठीं तो उनकी आँखे डबडबा गयीं. लाख चाहने पर भी वे आँसूं को रोक नहीं सके ओर फफक- फफक कर बालक की तरह रोने लगे. मैं उनको क्या चुप कराता , मैं भी इतना भावुक हो गया कि मैं भी उनके साथ – साथ रोने लगा .
आदि से अंत तक उन्होंने सारी बातें मुझे विस्तार से बतलाई . उसी दिन मुझे मालूम हुआ कि विषम परिस्थितयों में दादाजी ने हमारे परिवार को कष्ट से उबारा है . दादा जी के प्रति जो मेरे मन में गलत धारणाएं थीं , अब वह मिट चुकी थी . उसकी जगह मेरे मन में असीम आदर एवं सम्मान ने स्थान ले लिया था. मैंन दादाजी को अपने दिल की बात खोलकर रख दी ओर उनसे क्षमा भी मांगी. उनका हृदय सागर सा विशाल था. उन्होंने मुझे सस्नेह गले से लगा लिया ओर ढेर सारे आशीर्वाद दिए. मैं उस पल को याद कर के अब भी भावुक हो जाता हूँ.
तब से लेकर दादाजी के जीवन के अंतिम क्षण तक मैं उनसे सभी महत्वपूर्ण विषयों में सलाह- मशविरा करता रहा , अपने कामों को पूरी निष्ठां एवं ईमानदारी से करता रहा और कार्यों में सफल होता रहा . सही मायने में दादाजी तपे – तपाये इंसान थे. वे बातें कम एवं काम ज्यादा करने में विश्वास रखते थे. यही वजह थी कि एक बार जो उनसे मिलता था , उन्हीं के होकर रह जाता था . मेरी एवं उनके उम्र में बीस – पचीस साल का फर्क था , फिर भी वे मुझे कुछ मायने में अपने समकछ समझते थे ओर तदनुसार मेरे साथ व्यवहार करते थे. ऐसा वे क्यों करते थे , इसे मैं आज तक नहीं समझ सका.
मुझे मालुम हुआ कि उनको इस बात पर मुझ पर गर्व था कि मैं बच्चों को टिउसन करके अपनी पढाई का खर्च निकाल लेता हूँ. दूसरी गर्व की बात थी कि मैं अपने परिवार का भी ख्याल रखता हूँ. मैं जब भी किसी कार्यवश उनके पास गया , वे हमेशा कुछ न कुछ कार्य में व्यस्त मिले. मेरे लिए विस्मय की बात थी कि वे मुझे दूर से आते देखकर अपना काम समेट लिया करते थे. मेरी बातों को ध्यान से सुनते थे तथा अपना अमूल्य सुझाव देते थे. उनका सुझाव मेरे लिए मार्गदर्शन का कार्य करता था. वे झाड – फूंक का भी काम करते थे. तंत्र – मंत्र में भी वे प्रवीण थे. कविराजी में भी उनको महारथ हासिल था. घरेलू दवा के तो वे इतने बड़े जानकार थे कि लोग उनकी दवा के कायल हो गए थे. मेरे बीमार पढ़ जाने पर मेरी माँ कभी – कभी कटोरे में पानी पढ़कर मंगाती थी. कहाँ से ये सब सीखे थे तथा उनका गुरु कौन थे, मैं बड़ी मुश्किल से पता लगा पाया था.
अयोध्या जी के श्री विश्वम्भर जी महाराज प्रति वर्ष अपने शिष्यों के यहाँ आया करते थे . वे बहुत पहुंचे हुए महंत थे. इन विषयों में उनको दक्षता हासिल थी . विश्वम्भर महाराज के गोबिन्दपुर में कई शिष्य थे. हरिपद साव, काली मिस्त्री, सीताराम सिंह, हाड़ी सिंह, विशु सिंह, किशोरी साव, रतन सिंह (मेरे दादाजी), आदि जिनके घर में बाबाजी स्वं भोग लगाया करते थे. सभी जजमानों को कंठी माला देकर गुरुमुख कर चुके थे. मांसाहारी परिवार भी इनके शिष्य बनने के बाद मांस- मदिरा आदि से तौबा कर चुके थे. बाबा राम भक्त थे तथा अयोध्या के रहनेवाले थे. इनका अपना मठ था और इसमें ये महंत थे. इस कोलफिल्ड में उनके बहुत जजमान थे. यहाँ का काम खत्म करने के बाद उनकी विदाई भरपूर दान – दक्षिणा के साथ होती थी. माल असबाब धनबाद स्टेसन से सीधे अयोध्या के लिए बूक किया जाता था . सभी जजमान स्टेसन तक उन्हें छोड़ने जाते थे.
महाराज जी का गोबिंदपुर एवं यहाँ के लोगों के प्रति अगाध स्नेह एवं सहानुभूति रहती थी. यही वजह थी कि गोबिंदपुर से कोई भी व्यक्ति उनके आश्रम में जाता था तो उनका वे विशेष ख्याल रखते थे. किशोरी चाचा बाबा जी के परम भक्त थे . वे तो दिन – रात बाबा की सेवा – टहल में लगे रहते थे. उनके माता – पिता को शक हो गया कि कहीं किशोरी चाचा साधू न बन जाय . किशोरी चाचा को भी इस बात की जानकारी हो गयी थी कि उनके बारे में घर वालों एवं आस-पड़ोस के लोगों की क्या धारणा है. मेरी माँ ने तो एक बार सब के सामने पूछ दी थी , ‘’ का हो किशोरी ! शादी – विवाह ना करब का ? साधू बने के मन बना लेले बाड़ – अ का ?’’
‘’ भौजी, हम घर – गृहस्थी के मायाजाल में ना फंसब, बाबा जी के साथ अयोध्या चल जाईब .”
मोहल्ले के सभी लोग जान गये थे कि किशोरी चाचा साधू बनके ही दम लेंगे. अब इस पर बहस या चर्चा – परिचर्या होना भी करीब – करीब बंद हो चूका था. घर वालों ने भी समझौता कर लिया था कि लड़के को साधू बनने से रोका नहीं जा सकता. पूर्व की भांति दो साल बाद बाबा विश्वम्भर महाराज पुनः गोबिंदपुर पधारे. उनका अभूतपूर्व मान – खातिर हुआ. विदाई की तैयारी भी हो गयी. मॉल – असबाव के साथ उनको ट्रेन में बैठा दिया गया. शुबह हुयी तो किशोरी चाचा का कहीं अता – पता नहीं . चप्पा – चप्पा खोज डाला गया , लेकिन चाचा रहे तब न मिले. दावानल की तरह बात फ़ैल गयी. द्वार पर सैकड़ो लोग जमा हो गये. किशोरी गया तो गया कहाँ ? – सब की जुबान पर यही सवाल तैर रहा था. सीताराम दादा आगे बढ़कर सूचित किया कि बाबा जी का कमंडल व झोला उठाते हुए उसने किशोरी को देखा था .
‘’ बड़ी हुशियारी से निकला , लाल गमछा से मुँह ढका हुआ था एक लड़का का , जो बाबा जी के पीछे – पीछे चल रहा था. हो न हो वह लड़का किशोरी ही होगा .’’
हाड़ी सिंह बोला, “ साधू बनना था, चला गया बाबा जी के साथ, इसमें हाय – तौबा मचाने की क्या जरूरत है. सब लोग अपना-अपना घर जाईये. चिंता की कोई बात नहीं है.”
त्रिवेणी चाचा ( किशोरी चाचा का बड़ा भाई ) उबल पड़ा , “ कौन रोकता उसको, जाना ही था, तो गदहा बोल के जाता. सब को साँसत में डाल कर चल दिया. “
“ सब त्रिवेनिया के दोष बा . छोटा भाई के काबू में रखे ना सकल. आगे से सब कुछ मालूम रहे तो सीआईडी छोड़ देत किशोरिया के पीछे, तो भागत कैसे , यदि भागत भी तो पकड़ल जात. – महावीर सिंह ने अपना मंतव्य रखा.
“ अयोध्या कौन सा दूर बा, हमनी सब चार-पांच आदमी चल ट्रेन से, पकड़ के साला के लेते आईब. बड़का साधू बनल बा “ कालीचरण ने सुझाव दिया.
“ हम ना जाईब, जबरदस्ती ले ऐबे पकड़ के , कहीं कुछ उल्टा-पुल्टा कर लेलक तो ? – हाड़ी सिंह ने अपना विचार रखा.
“ बहला – फुसला के लाने में ही बुधिमानी बा “ – सीताराम दादा ने सुझाव दिया जिसे सब लोगों ने मान लिया.
“ जायेगा कौन ? कम से कम दो आदमी तो होना ही चाहिए , जिनपर किशोरी को यकीन हो. तभी बहला-फुसला के लाया जा सकता है.’’ – कालीचरण ने सुझाव दिया.
रामसिंघासन जी से सलाह – मशविरा करने से कोई न कोई हल निकल सकता है. – किसी ने अपना विचार प्रकट किया.
यही निष्कर्ष निकला कि किशोरी चाचा की शादी कर दी जाये. घर-गृहस्थी के मायाजाल में एक बार फंस गया बच्चू तो साधू बनने की बात स्वतः भूल जायेगा. हुआ भी वही , किशोरी चाचा को किसी तरह समझा – बुझाकर लाया गया. मुँह लटका हुआ था किशोरी चाचा का. मोहल्ले के लोग घेर कर खड़े हो गए . सवालों की बौछार कर डाली.
वक्त के साथ – साथ सब कुछ बदलता गया. उस वक्त रामसिंघासन साव की तूती बोलती थी. बड़े ही कड़ियल किस्म के आदमी थे. सलाह – मशविरा करके तय हुआ कि किशोरी चाचा को उन्हीं के पास रख दिया जाय. लड़की खोज कर शादी करवाने की जिम्मेदारी भी उन्हें सौंप दिया जाय. पहले ही दिन रामसिंघासन जी ने किशोरी चाचा को दो – चार डोज ( डांट – फटकार ) ऐसे दे दिए कि उसकी नानी मर जाय कि बिना बताये एक पल के लिए भी गद्दी छोड़ कर कहीं जाय. एक जगह चूतड़ कैसे बैठता है, दो – चार दिनों में ही किशोरी चाचा की समझ में आ गया था.
गद्दी में राँची, तुलिन, सिल्ली से लोग मिलने आते रहते थे. एक दिन सिल्ली से कुछ लोग आये . किशोरी चाचा को देख कर अपनी लड़की की शादी की बात रख दी. रामसिंघासन जी भी यही चाहते थे कि किसी तरह किशोरी का घर बस जाय. ईश्वर को भी यही मंजूर था. बस क्या था आनन – फानन में सब कुछ फटाफट हो गया. बाजे – गाजे के साथ बारात निकली और चाचा दूल्हा सजकर चाची को सिल्ली से उठाकर घर ले आये. दाल – रोटी के चक्कर में चाचा ऐसे फंसे की फिर साधु बनने की बात कभी नहीं की , लेकिन साधुवाला अपना रूटीन नहीं भूल पाए. जैसे शुबह उठकर स्नान – ध्यान कर लेना, रामनामी तिलक लगाना , नित्य सुबह – शाम रामायण की पाठ करना , कथा वाचना इत्यादि … बाद में बाल – बच्चे भी हुए , जिम्मेदारियां बढीं तो रोजी – रोटी में जी – जान से लग गये. दादी ही नहीं बल्कि पूरे मोहल्ले में खुशी का माहौल हो गया.
किशोरी चाचा का मेरे ऊपर विशेष सहानभूति रहती थी. इसकी वजह थी मेरे पिताजी के साथ उनकी घनिष्ठता . मेरी माता जी ने मुझे बताया था की मेरे पिताजी एवं किशोरी चाचा में दांत – काटी रोटी दोस्ती थी. एक दूसरे से मिले वगैर उनका पेट का पानी तक नहीं पचता था. मेरी माँ ने इस सन्दर्भ में एक घटना का भी उल्लेख किया था . किशोरी चाचा अयोध्या रिटर्न थे और वहां की चर्चा बहुधा किया करते थे. पिता जी के मन में अयोध्या घुमने की इच्छा जागृत हो गयी , लेकिन जाये तो जाये कैसे ? घरवाले कभी अनुमति नहीं देंगे – यह बात किशोरी चाचा अच्छी तरह से जानते थे. अतः दोनों ने भागकर जाने का निश्चय कर लिया. शाम तक न तो छेदी ( मेरे पिता जी ) घर लौटे , न ही किशोरी चाचा. पूरे मोहल्ले में चर्चा का विषय हो गया कि आखिर दोनों गये तो कहाँ गये.
मेरी दादी दबंग किस्म की महिला थी. उसने जब यह सुना की दोनों को साथ – साथ सुबह नौ बजे के करीब बस में जाते बढ़ई पट्टी का कोई आदमी देखा है. फिर क्या था , दादी ने बढ़ई पट्टी जाकर उस आदमी का पता लगा लिया , जिसने देखा था. दोनों लाल बाज़ार से ही बस में चढ़ गये थे . घर पार होते किशोरी चाचा ने मेरे पिता जी को बैठ जाने के लिए कहा था ताकि मोहल्ले का कोई आदमी देख न ले. उसे नहीं मालूम था की छठू मिस्त्री भी बस में मौजूद है. अब तो मेरी दादी ने जो कोहराम मचाया कि सारा मोहल्ला रात भर सो नहीं सका. यह बात दावानल की तरह पूरे गोबिंदपुर में फ़ैल गयी.
दादी ने तीन – चार आदमियों के साथ सीताराम दादा के साथ सुबह होते रवाना कर दिए अयोध्या और हिदायत कर दी की दोनों को पकड़ कर सीधे घर लेते आना है. विश्वम्भर बाबा को भी बता देना है कि घर में कोहराम मचा हुआ है, रोना – धोना लगा हुआ है. उनसे बता देना है कि दोनों लड़के घर से बिना बताये भाग कर आये हैं . आदेश मिलने भर की देर थी. किसकी हिम्मत थी कि दादी की बात को काटता . तीन दिन के बाद सीताराम दादा नौकर – चाकर एवं सिपाही जी के साथ दोनों को घर लिवा लाये. चेहरा दोनों का सर्कस के बन्दर की तरह गिरा हुआ था. सैकड़ों लोगों की भीड़ पल भर में जमा हो गयी. लोग तरह – तरह के सवाल पूछने लगे. दादी डांट – डपटकर सब को भगाई.
किशोरी चाचा को उसकी माँ – सुखदेई घर पुचकारते हुए ले गयी तो मेरी दादी भी पिता जी को घर के भीतर ले गयी. हाथ – पैर धुला कर दूध – रोटी खिलाई अपने हाथों से. गोड – हाथ में गरम सरसों तेल की मालिश की. कपडे – लत्ते भी बदल दिए गये . पिता जी को अपनी गलती का एहसास हो चूका था. काफी थके हुए थे. बिछावन बिछा दिया गया तो सोते ही नींद आ गयी .
उधर किशोरी चाचा को काफी फिचाई हो रही थी कि खुद जाते तो बात कुछ और होती , लेकिन छेदी को साथ ले जाने की क्या जरूरत थी. बनकुंवरी ( मेरी दादी ) सारा दोष किशोरी पर ही मढ रही थी .यही नहीं उल – जलूल बात भी द्वार चढ़ कर कर रही थी. दादी ने घर के लोंगो एवं नौकर – चाकर को हिदायत कर दी थी कोई भी इस सम्बन्ध में छेदी से कुछ भी पूछ – पाछ न करे | दादी से सभी लोग डरते थे. उनका आदेश की अवहेलना करने की हिम्मत किसी में नहीं थी. सब जानते थे की गलती करने की सजा कितनी बड़ी हो सकती है ? मार से ज्यादा तो धक्का खाना पड़ेगा. कोई नतीजा बाकी नहीं रखेगी . दो-चार दिनों में ही सब कुछ नार्मल हो गया.
पिता जी को दादी बहुत ही प्यार करती थी. उनके लिए पिता जी आँखों के तारा थे. एक पल भी अपनी आँखों से ओझल नहीं कर पाती थी. पिता जी को जो भी खाने का मन होता सिपाही जी पलक झपकते हाजिर कर देता था. दादी ने सिपाही जी को आदेश दे रखा था की जबतक लड़का पूरी तरह ठीक नहीं हो जाता , तबतक तकादा वगैरह में नहीं जाना है, घर पर ही डियूटी बजानी है. सिपाही जी जोंक की तरह पिता जी से सटे हुए थे. उनपर नज़र रखे हुए थे पिता जी के आदेश का इन्तजार बेसब्री से करते थे .
जब सबकुछ सामान्य हो गया तो बोडो ( मैं दादी को बोडो बोला करता था ) ने पिता जी को सावधान करते हुए दो – चार बातें सुनाने में बाज नहीं आयी थी, “ छेदिया, किशोरिया के साथ घूमना – फिरना छोड़ दे , उ तो साधू बन के ही दम ली , तुहूँ बनबे का ? . तोर शादी – विवाह हो जाई . बाल – बच्चेदार बनबे , जिम्मेदारी बढ़ी , अभी से घर – ग्रिहस्थी में ध्यान दे. अब से बाप ( रतन सिंह ) के कारबार में मदद कर . घर पर और हटिया में . “
पिता जी एक कान से सुने और दूसरे कान से तत्क्षण निकाल दिए थे. दादी जब – तब बेमतलब की बडबड किया करती थी. इसलिए मोहल्ले के दूसरे लोग भी उनकी बातों को अनसुनी कर दिया करते थे. लोग तो यहाँ तक कहते थे की दादी का सिंग बढ़ा हुआ है वह किसी न किसी से बेवजह झगडा जरूर करेगी और जब तक बाप दादा न उकटेगी तबतक उनका पेट का पानी नहीं पचेगा. दादी को लोग झगडैठीन तक कहने में संकोच नहीं करते थे. बात में इतना दम था कि दादी इस बात को सुनकर भी विरोध नहीं कर पाती थी क्योंकि यही सच्चाई थी और सच्चाई से मुकरना उस वक़्त बहुत बड़ी बात समझी जाती थी, आज जैसा जमाना उस वक़्त तो था नहीं .
दादी को घरेलु दवा की जानकारी बहुत थी. इसलिए लोग उनसे बैर या दुश्मनी मोलना नहीं चाहते थे. बच्चों की बीमारी की इतनी जानकार थी कि चेहरा देखकर, पेट टोकर , जीभ देखकर बता देती थी बच्चा को क्या हुआ है. नज़र – गुजर लगने पर भी कोई न कोई टोटका बताने में नहीं चुकती थी. लोगों को उनपर अटूट विश्वाश था. इसकी वजह थी कि बच्चे इनकी दवा व टोटका से जल्द ठीक हो जाया करते थे. दूसरी वजह यह भी थी दादी दूसरों के बच्चों को अपने बच्चों से कहीं ज्यादा ही प्यार – दुलार करती थी. रोते – बिलखते दूधमुहें बच्चे भी इनकी गोद में आते के साथ चुप हो जाते थे. इनके हाथ में यश है – ऐसा लोग कहा करते थे. हकीक़त भी यही थी. इसलिए इस पर कोई बहस करना पसंद नहीं करते थे.
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