काली ( मेर सबसे छोटा भाई ) तो महज छ महीने का ही था. वह सोया हुआ था. गोबिंद रबर का गेंद से खेल रहा था. हमलोग दोनों गेंद को फेंका – फेंकी करके खेल रहे थे. माँ अपने दादा ( चूंकि मानभूम जिला था और बंगाली कल्चर था , इसलिए लोग भाई को दादा ही कहकर सम्बोधित करते थे ) से बात – चीत करने में मशगुल थी. माँ को गुजराती दूकान का गठिया – सेव साथ में पपीता का अंचार बहुत पसंद था. मामा जी साथ में लेते आये थे. मामा जी और माँ दोनों मिलकर गठिया – सेव बड़े ही चाव से खा रहे थे और आपस में बात- चीत भी करते जा रहे थे.
माँ ने वहीं से आवाज लगाई ,” गोबिंद को दूर मत ले जाना, पास में ही खेलना – कूदना. “
शांति दीदी के लिए चोकलेट खरीदा था , जो पॉकेट में था. गोबिंद को दो चोकलेट दिया तो वह रेपर खोल कर खाने लगा. दूसरा मेरी तरफ बढाया तो मैंने उसके पाकिट में डाल दिया. कब नौ बज गया पता ही नहीं चला. तबतक जगदेव मामा भी आ गये. आते ही बोले,’’ अब तुमलोग घर चले जाओ. ‘’
हमलोग माँ से विदा लेकर स्टेसन आ गये और ट्रेन पकड़ कर घर आ गये. घर पर सभी लोग जगे हुए थे और बेसब्री से हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे. नानी द्वार पर ही मिल गयी, पूछ बैठी , ‘’ रामदुलारी कैसी है ? ‘’ ( राम दुलारी मेरी माँ का नाम ).
‘’ ठीक है , दस – पंद्रह दिन घाव भरने में लग जायेंगें . फिर छुट्टी हो जायेगी.
“ दस – पद्रह दिन ? “ नानी आश्चर्य प्रगट करते हुए बोली
’’ बीमारी ही ऐसी है. ‘’ – मामा ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया . सप्ताह भर भी नहीं हुआ था की एक दिन हमारे घर के सामने लोगों की बहुत भीड़ देखी. बुआ, नानी, मामा – बड़े व छोटे – जगदेव एवं भगवान सभी को रोते – तडपते हुए देखा. बुआ तो पछाड़ खा – खा कर विलाप करती हुयी ‘ छेदी भैया , छेदी भैया , हमरा तू अकेले छोड़ के काहे चल गयले , हमरा साथ काहे न ले गएल ? नानी का हाल भी बूरा था. इतनी सीधी – साधी थी मेरी नाना की उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या करे ऐसे वक़्त में – खुद रोये या रोते हुए को चुप करवाए . मेरी समझ में सिर्फ यही आ रहा था कि कोई अनहोनी घटना हो गयी है. बुआ , जगदेव मामा व भगवान मामा गोबिंदपुर के लिए निकल गये. साथ में कई लोग भी हो लिए. वे सभी देर रात को लौटे यह समाचार लेकर कि दाह – संस्कार का कार्य सुबह होगा . मुझे पता नहीं चला कि आखिर हुआ क्या है ?
मुझे असलियत से दूर रखा गया. सच पूछिये तो मेरी उम्र ही कितनी थी इन बातों को समझने – बुझने के लिए. महज सात – आठ साल का और एक सात – आठ साल का बच्चा मौत के बारे कितना ज्ञान रखता है. सारी रात लोग रोते – रोते आँखों ही में काटे. उस रात चूल्हा भी नहीं जला. किसी दूसरे के घर से रोटी – सब्जी मेरे घर खाने के लिए भेज दी गयी. मुझे दूध – पावरोटी खाने के लिए नानी ने दिया. मैं खाकर सो गया. अभी लोग तैयार हो ही रहे थे घाट पर जाने के लिए कि सीताराम दादा साईकल लेकर आ गये और जगदेव मामा से उलझ गये. सीताराम दादा मुझे लेने आये थे . उनका कहना था की अपने पिता की मुखाग्नी दुर्गा करेगा, कोई और नहीं . ऐसा दिदिया ( मेरी दादी ) का आदेश है . और लोग भी यही चाहते हैं . इसलिए इसे मेरे साथ जाने दीजिये .
मेरे जगदेव मामा का कहना था की दुर्गा बच्चा है , हदस जायेगा. छेदी का छोटा भाई ,गौरीशंकर है , उससे क्यों नहीं मुखाग्नी करवाते आपलोग ? आपलोग बच्चे को हदसा के मारना चाहते हैं ? जगदेव मामा का कहना सौ प्रतिशत सही था. उपस्थित लोगों ने भी बड़े मामा जी को सपोर्ट किया , लेकिन बात बनी नहीं . सीताराम दादा अड़ियल टट्टू की तरह अपनी बात पर अड़े हुए थे.
‘ जगदेव, जरा सोचो स्थिर वुद्धि – विवेक से. छेदी का पुत्र है – तो दूसरे से अग्नि – संस्कार करवाना उचित है क्या ? मोक्ष मिलेगा उनको ? और पुत्र रहते दूसरा कोई क्यों आग देगा ? यह बात मेरी नहीं है, न ही मेरा इसमें कोई अपना निजी स्वार्थ है. सभी लोग खुदिया नदी के घाट पर हमारा इन्तजार कर रहे हैं. जबतक हम दुर्गा को लेकर नहीं जायेंगे तबतक दाह – संस्कार का कार्य प्रारंभ नहीं होगा. ”
जो भी दलील सीताराम दादा ने दी उसे काटना मुश्किल था. जो लोग थोड़ी देर पहले मेरे बड़े मामा जगदेव का पक्ष ले रहे थे , वे अब सीताराम दादा का साथ देने लगे . मेरे छोटे भगवान मामा आगे बढ़कर बोले, ‘ दादा, दुर्गा को जाने दीजिये. जीजा जी तो अब संसार में रहे नहीं . उनका हक बनता है कि मरने पर उनका पुत्र ही दाह – संस्कार करे. हमारे साथ यही हादसा होता तो हम क्या करते ? दादा , जिद को थूक दीजिये . दुर्गा को जाने दीजिये इनके साथ. ये एक जिम्मेदार आदमी हैं. भला – बूरा सब कुछ समझते हैं. न जाने देंगे तो लोग हम पर ही ऊंगली उठाएंगे !
जगदेव मामा ने दुनिया देखी थी . वे बेमन से सीताराम दादा को मुझे ले जाने की इजाजत दे दी. बड़े मामा जगदेव , छोटे मामा भगवान , अयोध्या सिंह , प्रयाग सिंह, गोदा पाल भी उसी वक्त श्मशान घाट के लिए प्रश्थान कर गए. इसके बाद क्या हुआ ,उसका लेखा – जोखा पहले ही दिया जा चूका है. पिता का साया जब किसी का इतनी कम उम्र उठ जाता है तो उसे किन – किन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है , यह एक भुक्तभोगी ही बता सकता है , न कि कोई दूसरा. मैंने जीवन में जो सूनापन का एहसास किया वो शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता. यदि व्यक्त भी करने का ठान लूं , तो संसार की कागज़ और स्याही भी कम पड़ेगी .
मेरी माँ उस वक़्त सदर अस्पताल में भर्ती थी . इसी दौरान पिता जी का देहांत हो गया था . डाक्टर ने मामा जी को हिदायत कर दी थी किसी सूरत में माँ को पिता जी के स्वर्गवास होने की खबर न दी जाये , अन्यथा उसकी जान बचानी मुश्किल होगी . माँ दो – तीन दिनों के बाद सबसे पूछना शुरू कर दी थी कि दुर्गा के पिता जी क्यों नहीं मिलने आते ? इस प्रश्न का माकूल जबाव तो किसी के पास तो था नहीं , तो क्या जबाव देते ? तरह-तरह का जबाव देना भी संदेह को जन्म दे सकता था , इसलिए सब ने शोच-समझ कर एक सा उत्तर तैयार कर लिया था.
सभी लोग एक ही बात बोलते , ‘ अयोध्या जी गये हैं , विश्वम्भर बाबा बुलाये हैं . वो भी अकेले नहीं , किशोरी जी के साथ.
माँ को यकीन नहीं हो रहा था . वह भगवान मामा पर बहुत विश्वास करती थी. भगवन मामा को माँ से मिलने का साहस नहीं हो रहा था कि वह अपनी लाडली बहन को कैसे झूठ बोल कर धोखा में रखे . वे जाने से कतरा रहे थे और इधर जो भी माँ के पास जाता , माँ बस एक ही रट लगाती थी कि भगवान दादा को क्यों नहीं भेजते मुझे देखने के लिए. चार – पांच दिन बीत चुके थे पिता जी के गुजरे हुए. मामा ने साहस बटोर कर स्थिति का सामना करने का निश्चय कर लिया. वे शुबह का समय चुने ताकि मेरे ( दुर्गा ) बारे में पूछने पर मेरा साथ न आने का माकूल जवाब दे सके. भगवान मामा दस बजे के करीब अकेले ही अस्पताल पहुंचे. माँ की नज़र हमेशा दरवाजे पर टिकी रहती थी. आज भी वह दरवाजे तरफ देख रही थी. मामा ज्यों ही कमरे में प्रवेश किया कि माँ उठ कर बैठ गयी . सवाल कर दी, ‘ दादा , इतने दिन बाद , तबियत वगैरह तो ठीक थी ? और दुर्गा को साथ नहीं लाये ? क्या बात है ? वह बीमार – उमार तो नहीं है ?
माँ ने मामा से प्रश्नों की झड़ी लगा दी. मामा को लगा कि अब उससे झूठ बोला नहीं जा सकता. मामा को उत्तर सूझ ही नहीं रहा था लेकिन उत्तर तो देना ही था , नहीं तो शक बढ़ने की संभावना थी. मामा इतने नर्वस थे कि उनकी जुबान माँ के सामने खुल ही नहीं रही थी. उसी वक़्त मेरी दादी कमरे में हँसते हुए व सवाल करते हुए प्रवेश की , ‘ बहू ! अब कैसी हो ? देखो न घर पर छेदिया ( मेरे पिता जी को दादी छेदिया कहकर बुलाती थी ) भी नहीं है. किशोरी के साथ अयोध्या चल देलक . बिश्वम्भर बाबा के अभिये बुलाये के रहे .
दादी जिन्दगी में बहुत झेल चुकी थी. वह एक अच्छी कलाकार थी. माँ को उनकी बातों पर यकीं हो गया. इधर मामा जी की जान में जान आयी. झूठ बोलने से बच गये. मामा मूर्तिवत बैठे रह गये. दादी इतनी चालाकी से प्रश्नों का जवाब दी कि माँ को शक करने की कोई गुंजाईश नहीं रही. मैं तो गोबिंदपुर में ही था. मुझे कोरा सफ़ेद कपडा बिना सिला हुआ पहना दिया गया था. रोज सुबह सीताराम दादा, जगदेव मामा, कालीचरण, बिसू सिंह , किशोरी चाचा , गौरीशंकर चाचा इत्यादि लोगों के साथ घंट में जल डालने के लिए मुझे रेजली बाँध का पीपरा घाट जाना पड़ता था. यह सिलसिला दस दिनों तक चला. दस कर्म के दिन घाट पर पिंड दान आदि क्रिया संपन्न हुआ. दान – दक्षिणा देने के बाद हमलोग घर लौट आये. बारह दिन पर भोज का आयोजन किया गया जिसमें सभी हित-मित्र ,सगे-संबंधी , कुटुंब को आमंत्रित किया गया. श्राद्ध – कर्म हिंदुयों का एक ऐसा विधि- विधान है जिसके संपन्न हो जाने से शौक- संताप शनैः शनैः कम होने लगता है. लोग सहज महसूस करने लगते हैं . फिर से परिवार में नवजीवन लौटने लगता है. अपने-अपने कार्यों में लोग लग जातें हैं.
मेरे घर में भी स्थिति सामान्य हो गयी. मामा ने आकर बताया की माँ की अस्पताल से छुट्टी होने वाली है. इस दुःख की घड़ी में मामा चाहते थे की माँ को प्रधानखंता ले जाया जाय , लेकिन मेरी दादी गोबिंदपुर ले आने पर अड़ गयी. आखिरकार दो दिनों के बाद माँ गोबिंदपुर आ गयी. सब को हिदायत कर दी गयी की कोई छेदी के मरने की बात नहीं बताएगा, लेकिन माँ के घर आ जाने पर लोग कटे – कटे से रहने लगे. कोई कुछ बताने में टा ल-मटोल करने लगा. सच्चाई को कब तक छुपाया जा सकता था.
एक दिन माँ ने किशोरी चाचा को देख लिया. फिर क्या था – मेरी छोटी बुआ भानो को अपने पास प्यार से बैठा कर पूछी तो उसने सारी बातें सच-सच उगल दी. माँ तो पछाड़ खा-खा कर रोने लगी. कोहराम मच गया. माँ तो सदमा सह नहीं सकी और बेहोश हो गयी. डाक्टर बुलाया गया. दवा दी गयी. होश आने पर उनके हाथों की चुदियाँ परम्परानुसार तोड़ दी गयी , माथे का सिन्दूर धो दिया गया. मैं माँ के पास ही था और मेरे सामने ही यह सब कुछ हो रहा था. मैं एक मूक दर्शक की तरह सब कुछ देख रहा था और माँ के साथ – साथ रो भी रहा था. भानो बुआ मुझे चुप करवाने में लगी हुयी थी. माँ को सम्हालने में बडकी बुआ लगी हुयी थी. घर का माहौल एक बार फिर ग़मगीन हो गया. ऐसा कारुणिक दृश्य सामने था जिसे वर्णन नहीं किया जा सकता. मोहल्ले की सभी महिलाएं समझाने-बुझाने के लिए कमरे में जमा हो गयी थीं. माँ थी कि सब को कोस रही थी की इतनी बड़ी हादसा हो गयी तो उससे छुपाया क्यों गया ? इसका जवाब किसी के पास तो था नहीं जो देती. माँ दो-तीन दिनों तक न ठीक से खाई न पी.
मेरे ऊपर क्या गुजरा , यह जब एकांत में होता हूँ तो उस दृश्य को याद कर सिहर जाता हूँ. मुझे माँ को ऐसी दुःख की घड़ी में एक पल भी छोड़ना गवारा नहीं था. मैं माँ के साथ – साथ चौबीसों घंटे रहता था. माँ की उम्र उस वक़्त महज पच्चीस साल थी. और पिता जी उसे असमय ही छोड़ कर चल दिए थे. एक लम्बी जिन्दगी काटना माँ के लिए कितना कठीन था, बाद के दिनों में (विगत पैतालीस वर्षों मे ) मुझे माँ के साथ रहते हुए एहसास हुआ कि माँ ने हम तीन भाईयों को पालने-पोसने में कितने कष्ट उठाये – दुःख झेली. किसी संयुक्त परिवार में तीन – तीन बच्चों के साथ जीवन निर्वाह करना बहुत ही कठीन था, लेकिन माँ ने सभी मुसीबतों को झेलती रही , कभी किसी को कोई शिकवा – शिकायत का मौका नहीं दिया. शुबह से शाम तक घर के कामों को निपटाने में कोई कौर – कसर नहीं छोडती थी.
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